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________________ .............. . सम्यग्दर्शन : विविध ४१३ पांडया राज्य के नरेश नेदुमरन पांडया ने ८००० जैनियों को मरवा डाला और उस स्थान पर मदुरा में अब भी शैवों द्वारा प्रतिवर्ष उत्सव मनाया जाता है। मिश्रबन्धु कृत 'भारतवर्ष का इतिहास' द्वितीय खण्ड पृष्ठ ५४२ व ४१५ पर भी लिखा है कि मैसूर नरेश विट्टदेव ने बहुत से साधुओं और श्रावकों को कोल्हू में पिरवा डाला तथा महाराष्ट्र में भी यादव वंशी राजा ने कई जैन मन्दिरों से मूर्तियाँ फिंकवा कर शैव मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करवा दीं। ऐसे संकट के समय में जैन गुरुओं ने जैन मन्दिरों के बाहरी भाग में हिन्दुओं की सी मूर्तियाँ स्थापित करवाना शुरू कर दिया ताकि उससे ऐसा लगे के ये हिन्दू देवताओं को मानते हैं। दिशाओं के दस दिग्पाल हिन्दू धर्म में माने जाते हैं वैसे ही हमारे यहाँ भी १० दिग्पाल कल्पित कर लिए गये। उनमें से ८ के तो नाम भी वही हैं कि जो हिन्दू शास्त्रों में है। पं. आशाधरजी ने नित्यमहोद्योत अभिषेक पाठ में ईशान दिशा के दिग्पाल का जो स्वरूप लिखा है, वह हिन्दू-शास्त्रों में वर्णित शिवजी से पूर्णत: मिलता है। इसी प्रकार हिन्दू धर्म में काली, महाकाली, चामुण्डा आदि देवियाँ मानी गई हैं । उनकी नकल पर उन्हीं के कुछ नामों में अपने नये नाम मिलाकर और उनके साथ तीर्थंकरों का सम्बन्ध जोड़कर २४ यक्षिणियों की कल्पना कर ली गई और उनका नाम शासन देवता रख दिया गया (यह बात दि. १५-९-८१ के वीर में प्रकाशित श्री गणेशप्रसाद जी जैन के लेख में दिये वर्णन से भी प्रतिपादित होती है)। जैन संदेश, दि. २४ मार्च १९७७ में (डा. विश्वम्भर उपाध्याय के मत सहित प्रकाशित) 'जैनधर्म में तांत्रिक प्रभाव' शीर्षक से स्व. श्री अगरचन्द जी नाहटा के लेख में भी यही बताया गया है कि जैनधर्म में (दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों में) शासन देव-देवियों की मान्यता मध्ययुग में हिन्दू तांत्रिकों के प्रभाव से आई थी। सोमदेव सूरि ने, जो ११वीं सदी के लगभग अर्थात् भ. महावीर के १६०० वर्ष बाद हुए, यशस्तिलकचम्पू के अन्तर्गत उपासकाचार में लिखा है, 'ताः शासनाधिरक्षार्थं कल्पिताः परमागमे।' इससे भी प्रगट होता है कि शासनदेव वास्तविक नहीं हैं, कल्पित हैं। इसीलिए जब कल्पना ने मान्यता प्राप्त कर ली तब १३वीं शती व उसके बाद ही शासन देव पूजा सहित प्रतिष्ठापाठ रचे गये। वर्तमान में प्रचलित शासनदेव पूजाएँ उसी काल की हैं। शासनदेव पूजा के समर्थक विद्वानों ने पुराणों के उदाहरण दिये हैं, उन्हें शास्त्र आम्नाय नहीं कहा जा सकता जबकि कुंदकुंदाचार्य ने असंयमी को नमस्कार करने तक से मना किया है। (२) यह मानना ही गलत है कि आचार्य अकलंकदेव, स्वामी समंतभद्र आदि पर आये उपसर्गों में किसी शासन देवी ने सहायता की। कथावार्ताओं में जो ऐसे उल्लेख हैं वे जैन सिद्धान्त के विपरीत हैं। पूर्वोक्त विद्वान् बन्धु का यह कथन भी हास्यास्पद है कि मन्त्रों की साधना से सिद्धि तथा भगवान की पूजा का फल शासन देव-देवी ही देते हैं। जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त की तो मान्यता ही यह है कि न कोई ईश्वर है, न कोई देवी-देवता कि जो हमें कुछ दे सकें या हमारे सहायक हो सकें। हमारी आत्मा में ही अनंत शक्ति है और उसमें श्रद्धा रखकर तथा मन्त्र, जप आदि व ध्यान की साधना द्वारा उसे जगाकर हम अनेक ऋद्धियां-सिद्धियां पैदा कर सकते हैं। पूजा, भक्ति, ध्यान, जप, तप मन्त्र-साधना का फल भी संसार की वैज्ञानिक प्रक्रिया के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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