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जिनवाणी-विशेषाङ्क में पवित्रता उत्पन्न कर कर्म को शुद्ध कर देती है। कर्म की शुद्धि में ही सुन्दर समाज का निर्माण निहित है जिससे पारस्परिक संघर्ष शेष नहीं रहता, क्योंकि कर्म की शुद्धि किसी के अधिकार का अपहरण नहीं करती, प्रत्युत रक्षा करती है। जो किसी के अधिकार का अपहरण नहीं करता उसमें अधिकार लोलुपता शेष नहीं रहती, क्योंकि अधिकार लोलुपता उसी में निवास करती है जो दूसरों के अधिकार का अपहरण करता है । जिसने दूसरों के अधिकार की रक्षा को ही अपना कर्तव्य स्वीकार किया है उसकी दृष्टि दसरों के कर्त्तव्य पर नहीं जाती, कारण कि कर्त्तव्य-परायणता में जो विकास है वह अधिकार मांगने में नहीं है । अधिकार लालसा तो उन्हीं प्राणियों में निवास करती है जिन्होंने बुद्धि-दृष्टि का आदर नहीं किया। बुद्धि-दृष्टि प्राणी को कर्तव्यनिष्ठ बनाकर विवेक-दृष्टि में प्रतिष्ठित कर जड़ता से विमुख कर देती है। जड़ता की विमुखता में विषमता नहीं है, अर्थात् समता है जो वास्तव में योग है। योग में इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर मन की निर्विकल्पता में विलीन हो जाती है, जिसके होते ही निर्विकल्प स्थिति स्वतः हो जाती है जिसके होते ही अनेकता एकता से और विषमता समता से अभिन्न हो जाती है अथवा यों कहो कि एकता अनेकता को और समता विषमता को खा लेती है और फिर विवेक का प्रकाश पूर्ण रूप से उदय होता है जो निर्विकल्प स्थिति से असंग कर काम का अन्त कर देता है। काम का नाश होते ही भोक्ता, भोग्य-वस्तु और भोगने के साधन ये तीनों ही गलकर जो सर्व का द्रष्टा है उसमें विलीन हो जाते हैं और फिर अन्तर्दृष्टि स्वतः जागृत होती है जो त्रिपुटी का अत्यंत अभाव कर देती है। अन्तर्दृष्टि में पूर्ण स्वाधीनता है और अप्रयत्न ही प्रयत्न है जिससे अखण्ड, एक रस, नित्य-जीवन से अभिन्नता होती है। नित्य-जीवन से ही सभी को सत्ता मिलती है, क्योंकि नित्य-जीवन के अतिरिक्त और किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं है । नित्य-जीवन की प्राप्ति में प्रेम स्वतः सिद्ध है, क्योंकि अनित्य जीवन में जो आसक्ति के रूप में प्रतीत होती थी वही नित्य-जीवन में प्रीति के स्वरूप में बदल जाती है। नित्य-जीवन जिसका स्वरूप है प्रीति उसी का स्वभाव है। स्वरूप से स्वभाव और स्वभाव से स्वरूप भिन्न नहीं होता। जिस प्रकार सूर्य की किरणें और प्रकाश सूर्य से अभिन्न हैं उसी प्रकार नित्य-जीवन के स्वरूप और स्वभाव में अभिन्नता है। प्रीति की दृष्टि अन्तर और बाह्य भेद की नाशक है और उसका प्रभाव समस्त दृष्टियों में ओत-प्रोत है। ज्यों-ज्यों प्रीति की दृष्टि सबल तथा स्थायी होती जाती है त्यों-त्यों सभी दृष्टियां गलकर प्रीति से अभिन्न होती जाती है।
इन्द्रिय-दृष्टि की सत्यता मिटते ही बुद्धि-दृष्टि सबल हो जाती है। बुद्धि-दृष्टि का पूर्ण उपयोग होते ही विवेक-दृष्टि स्पष्ट प्रकाशित होती है, जो अन्तर्दृष्टि को जागृत कर चिन्मय जीवन से अभिन्न कर देती है और अन्तर्दृष्टि की पूर्णता में ही प्रीति की दृष्टि निहित है। जो सभी दृष्टियों के भेद को खाकर चित्त को सदा के लिए शुद्ध, शान्त तथा स्वस्थ कर देती है।
अतः इन्द्रिय, बुद्धि आदि दृष्टियों को प्रीति की दृष्टि में विलीन करना अनिवार्य है। यह चित्त की शुद्धि से ही सम्भव है। क्योंकि जब इन्द्रिय-दृष्टि द्धि-दृष्टि में और बुद्धि-दृष्टि विवेक-दृष्टि में विलीन हो जाती है तब चित्त शुद्ध हो जाता है, और अन्तर्दृष्टि तथा प्रीति की दृष्टि उदय होती है । इस प्रकार चित्त की शुद्धि में ही जीवन की पूर्णता निहित है।
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