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________________ सम्यग्दर्शन : विविध ३९९ फिर विवेक-दृष्टि उदित होती है, जो काम का अन्त कर प्राणी को चिर-शांति तथा स्वाधीनता एवं चिन्मयता की ओर उन्मुख कर देती है, जिसके होते ही अन्तर्दृष्टि जागृत होती है जो भेद तथा दूरी का अन्त कर उसे अपने ही में संतुष्ट कर देती है । अन्तर्दृष्टि की पूर्णता में प्रीति की दृष्टि का उदय होना स्वाभाविक है। प्रीति की दृष्टि समस्त दृष्टियों में एकता का बोध कराती है, क्योंकि प्रीति सभी से अभिन्नता प्रदान करने में समर्थ है। प्रीति की दृष्टि रसरूप है। प्रीति की दृष्टि रसस्वरूप होने से प्रेमास्पद में नित-नूतनता का बोध कराती है। प्रीति पूर्णरूप से प्रीतम को देख ही नहीं पाती, क्योंकि प्रीति और प्रीतम दोनों ही अनन्त, दिव्य तथा चिन्मय हैं। प्रीति के साम्राज्य में जड़ता का लेश नहीं है। प्रीति पूर्ति-निवृत्ति से रहित होने से मिलन में वियोग और वियोग में भी मिलन का रस प्रदान करती है। अर्थात प्रीति की दृष्टि से मिलन और वियोग दोनों ही रसरूप हैं। प्रीति स्वरूप से ही रसरूप है। उसमें अस्वाभाविकता लेशमात्र भी नहीं है, इसी कारण अखण्ड तथा अनन्त है। प्रीति एक में दो और दो में एक का दर्शन कराती है अथवा यों कहो कि वह एक और दो की गणना से विलक्षण है। उसमें भेद और भिन्नता की तो गंध ही नहीं है। इन्द्रिय और बुद्धि-दृष्टि का द्वन्द्र जब तक रहता है तब तक चित्त में अद्धि रहती है। ये दोनों दृष्टियां प्रतीति के क्षेत्र में ही कार्य करती हैं। बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव वस्तुओं की स्थिति का अन्त कर उनसे अतीत के जीवन की लालसा जागृत करता है। इन्द्रिय दृष्टि ने जिन वस्तुओं की स्थिति स्वीकार की थी बुद्धि-दृष्टि उस स्थिति को वस्तुओं के उत्पत्ति-विनाश का क्रममात्र मानती है और कुछ नहीं अर्थात् वस्तु की स्थिरता बुद्धि-दृष्टि स्वीकार नहीं करती। उसका परिणाम यह होता है कि दृश्य से विमुखता हो जाती है और विवेक दृष्टि उदित होती है, जिससे चित्त शुद्ध हो जाता है क्योंकि अशुद्धि अविवेकसिद्ध है। इन्द्रिय-दृष्टि भोग की रुचि को सबल बनाती है, बुद्धि-दृष्टि भोगों से अरुचि उत्पन्न करती है और विवेक-दृष्टि भोगवासनाओं का अन्त कर जड़-चिद्-ग्रन्थि को खोल देती है। जिसके खुलते ही अन्तर्दृष्टि उदय होती है, जो अपने ही में अपने प्रीतम को पाकर कृत-कृत्य हो जाती है अर्थात् पर और स्व का भेद गल जाता है। अन्तर्दृष्टि श्रमरहित स्वाभाविक है, गति और स्थिरता दोनों से विलक्षण है । वह सब प्रकार के अभिमान का अन्त कर देती है। विवेक-दृष्टि ने जिस चिन्मय राज्य में प्रवेश कराया था, अन्तर्दृष्टि उसी में सन्तुष्ट कर कृत-कृत्य कर देती है। इन्द्रिय-दृष्टि पर बुद्धि-दृष्टि शासन करती है और बुद्धि-दृष्टि को विवेक-दृष्टि प्रकाश देती है और अन्तर्दृष्टि विवेक-दृष्टि को पुष्ट करती है। जब बुद्धि-दृष्टि इन्द्रिय-दृष्टि के उत्पन्न किये हुए राग का नाश कर देती है तब अकर्तव्य कर्त्तव्य में बदल जाता है अर्थात् स्वार्थ-भाव सेवा-भाव में विलीन हो जाता है, जो रागरहित प्रवृत्ति में हेतु है। रागरहित प्रवृत्ति बाह्य जीवन में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करती है, जिससे परस्पर में कर्म की भिन्नता होने पर भी स्नेह की एकता सुरक्षित रहती है जिससे वैर-भाव की गन्ध भी नहीं रहती । वैर-भाव का अन्त होते ही निर्भयता, समता, मुदिता आदि दिव्य गुणों का प्रादुर्भाव स्वतः हो जाता है। इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव भले ही असाधन रूप हो, क्योंकि वह राग का पोषक है, परन्तु बुद्धि-दृष्टि के नेतृत्व में इन्द्रिय-दृष्टि का उपयोग साधन रूप है, कारण कि बुद्धि-दृष्टि भाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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