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सम्यग्दर्शन और श्रीमद् राजचन्द्र
___B डॉ. यु.के. पुंगलिया तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है कि सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग के तीन साधनों में से प्रथम साधन है। पंडित सुखलाल जी ने 'तत्त्वार्थसूत्र के विवेचन में सम्यक् दर्शन का अर्थ बताते हुए कहा है कि जिस गुण के विकास से तत्त्व अर्थात् सत्य की प्रतीति हो, छोड़ने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो वह सम्यग्दर्शन है। यह विवेक उत्पन्न होना अध्यात्मिक विकास का लक्षण है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। दोनों जितने प्रभावी होंगे उतना सम्यक् चारित्र भी शुद्ध होता जाता है। इन तीनों को जैन शास्त्रों में रत्नत्रय कहा है। तीनों के उत्पन्न होने पर आत्मा का अनुभव; साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त होता है ।
श्रीमदजी ने कहा है कि जिनेश्वरों ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का उपदेश इसलिए किया कि साधक दुःख से छुटकारा पाकर सच्चा और शाश्वत सुख तथा मुक्ति प्राप्त करे। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही रहते हैं, किन्तु पहले के बिना दूसरा उत्पन्न नहीं होता। ___'मैं कौन हूं?' आदि प्रश्नों के यथार्थ उत्तर जानना, उन पर अटूट श्रद्धा होना, आध्यात्मिक उन्नति के लिये क्या अच्छा क्या बुरा इसका विवेक होना और जो उस उन्नति के लिये आवश्यक और हितकारी है वैसे ही आचरण करने की मानसिक संवेदनशीलता और क्षमता रखना सम्यग्दर्शन है, यह श्रीमद्जी के उपदेश का सार है। ऐसा सम्यग्दर्शन प्राप्त हुए बिना आध्यात्मिक उन्नति होना तो संभव ही नहीं। इतना ही नहीं सम्यक् दर्शन का श्रेय और परिचय हुए बिना सांसारिक धन, संपत्ति, कुटुंबीजन आदि भी मनुष्य को इस जीवन में भी सुखी नहीं बना सकते, क्योंकि ऐसे मनुष्यों में मिथ्यात्व और कषाय (राग-द्वेष आदि) की बलवत्तरता होती है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान साथ उत्पन्न होते हैं, फिर भी सम्यग्दर्शन का महत्त्व सम्यक् ज्ञान से बहुत ज्यादा है। सम्यक् दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान सही प्रगति नहीं कर सकता, साधक का दुःख और जन्म-मरण का चक्र नष्ट नहीं हो सकता, लेकिन दोनों साथ हों तो सम्यक् चारित्र प्राप्त होने में और उसमें गति होने में दोनों बहुत सहायक होते हैं। सम्यक् चारित्र उत्पन्न होने से ही दुःख-मुक्ति का रास्ता प्राप्त होता है। श्रीमद्जी ने इसलिये पत्रांक नं. ७६२ में कहा है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकत्रता मोक्षमार्ग है। सर्वज्ञों ने अपने ज्ञान से जो तत्त्व प्रतिपादित किये, उनमें दृढ़ श्रद्धा सम्यग्दर्शन और उन तत्त्वों का बोध होना सम्यक् ज्ञान है तथा उपादेय (ग्राह्य) तत्त्वों का अभ्यास (आचरण) सम्यक् चारित्र है।
उपदेशछाया भाग ३ पाना ६८६-८७ पर श्रीमद्जी ने सम्यक्त्व के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण विचार प्रदर्शित किये हैं। वे कहते हैं 'देव अरिहंत, गुरु निर्गंथ और केवली का उपदिष्ट धर्म इन तीन की श्रद्धा को जैनों में सम्यक्त्व कहा है। लेकिन गुरु असत् होने के कारण देव और धर्म का भान नहीं होता। सद्गुरु मिलने से उस देव और धर्म का भान होता है। इसलिए सद्गुरु के प्रति आस्था ही सम्यक्त्व है।
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