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सम्यग्दर्शन : विविध
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स्वीकार करना चाहते हैं ? क्योंकि हमें यह सहज ही विश्वास होता है कि युक्ति हमें विश्वास योग्य निष्कर्ष अथवा स्थापनाएं देगी । अन्य शब्दों में, हमें युक्ति - प्रक्रिया पर विश्वास है। ये बातें हमें उस धारणा से विपरीत दिशा में ले जाती हैं, जिसमें विश्वास तथा युक्ति को एक दूसरे से न केवल असम्बद्ध अपितु विरोधी माना जाता है । ऐसे सन्दर्भ सार्थक हो सकते हैं, परन्तु हमने देखा कि ऐसे सन्दर्भ भी हैं जिनमें विश्वास तथा युक्ति एक दूसरे के अधिक निकट होते हैं ।
वस्तुतः विश्वास में यदि मात्रा भेद स्वीकार कर लें, अर्थात न्यूनाधिक रूप में विश्वास की बात को लें, तब यह आसानी से देखा जा सकेगा कि हमारे ज्ञान में विश्वास की भूमिका कितनी व्यापक है । राह चलते जब हम किसी अनजान व्यक्ति से किसी का पता अथवा मार्ग के विषय में पूछते हैं, तब उसके उत्तर को विश्वास के साथ स्वीकार करते हैं । अनजान व्यक्ति की तुलना में हम पहचाने व्यक्ति की बात पर सहजता से विश्वास कर लेते हैं । अनभिज्ञ तथा नौसिखिये की तुलना में विज्ञ तथा विद्वान् की बात को बिना शंका के मान लेते हैं । सन्त, महात्मा जैसे व्यक्तियों की बातों पर तो विश्वास कर लेना अत्यन्त सामान्य बात है । यदि हम अपने दैनिक व्यवहार में प्रत्येक बात को अनुसन्धान के बाद ही स्वीकार करने का नियम बना लें तब शायद जीवन की गति ही अवरुद्ध हो जायेगी ।
महत्त्वपूर्ण बात तो यह समझना है कि यह मानने पर भी कि युक्ति और बुद्धि की सीमाएं हैं, अन्धविश्वास फिर भी सर्वत्र स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार यह स्वीकार करते हुए भी कि विश्वास की जीवन में व्यापक भूमिका है, निश्चयात्मकता की दृष्टि से अनुसंधान, शंका एवं जिज्ञासा का महत्त्वपूर्ण स्थान है, ऐसा स्वीकार करना पड़ता है।
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आर- ४, विश्वविद्यालय परिसर, जयपुर ३०२००४
भगवान तुम्हारी शिक्षा
जीवन को शुद्ध बना लेऊँ, भगवान तुम्हारी शिक्षा से । सम्यग् दर्शन को प्राप्त करूँ, जड़ चेतन का परिज्ञान करूँ। जिनवाणी पर विश्वास करूँ, भगवान तुम्हारी शिक्षा से ॥१ ॥
अरिहंत देव निर्ग्रन्थ गुरु, जिन मार्ग धर्म को नहीं विसरूँ । अपने बल पर विश्वास करूँ, भगवान तुम्हारी शिक्षा से ॥ २ ॥
हिंसा असत्य चोरी त्यागूँ, विषयों को सीमित कर डालूँ । जीवन धन को नहीं नष्ट करूं, भगवान तुम्हारी शिक्षा से ॥३ ॥ - आचार्य श्री हस्ती
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