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जिनवाणी-विशेषाङ्क बचाते हैं। ज्ञान की वस्तुनिष्ठता किसी सीमा में युक्ति तथा तर्क के नियमों से व्याख्यायित होती है। इस प्रकार युक्ति की सक्रियता के दो महत्त्वपूर्ण घटक हुए (१) वे आधार वाक्य जिन पर युक्ति अपने आरम्भ के लिये टिकी होती है, तथा वे (२) नियम जिनके माध्यम से उसमें गति आती है। अब इनमें पहला घटक युक्ति के निष्कर्षों को भ्रान्त भी बना सकता है। इस संभावना से बचने का एक उपाय हो सकता है कि हम आधार वाक्यों को अन्य आधार वाक्यों के आधार पर सिद्ध करें, तब स्वीकारें । परन्तु फिर हमें इन अन्य आधार वाक्यों के आधार की अपेक्षा रहेगी।
अन्ततः हमें ऐसे आधार वाक्य स्वीकार करने पड़ेंगे जो निराधार हों अथवा स्वयं सिद्ध हो। विचारकों ने पाया है कि ऐसे वाक्यों को प्राप्त करने की चेष्टा अभी तक एक मृगमरीचिका की ही तलाश सिद्ध हुई है।
युक्ति का एक दूसरा स्वरूप जो एक जैसे प्रत्यक्ष अथवा अनुभव की आवृत्तियों पर आश्रित होता है हमें गतानुभव के आधार पर भविष्य के सम्बन्ध में निश्चय करने में सहायक होता है। परन्तु भविष्य के सन्दर्भ में कोई भी निष्कर्ष दो प्रमुख कारणों से पूर्ण निश्चित नहीं हो पाता। डेविड हम जो एक अत्यन्त प्रसिद्ध तथा प्रभावशाली विचारक हुए हैं, मानते थे कि गतानुभव हमें केवल इतना ही बताता है कि कोई दो घटनाएं एक के बाद एक के रूप में घटी थी तथा ऐसा अनेक बार हुआ था। परन्तु एक घटना के बाद कोई दूसरी घटना ही क्यों घटी इसका उत्तर हमें न तो अनुभव से प्राप्त होता है और न बुद्धि से। अतः गतानुभव के आधार पर भविष्य में घटने वाली घटनाओं के विषय मे हमारे निष्कर्ष पूर्वाभास ही हो सकते हैं, वे अधिकाधिक सम्भाव्य हो सकते हैं, पूर्ण या निश्चित नहीं। __इस प्रकार युक्ति द्वारा भी ज्ञान की प्राप्ति सन्दिग्ध रहती है। यहां एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्यान में आता है। साधारणतया युक्तियां वाक्यों की शृंखला के रूप में होती हैं। वाक्य 'क' 'ख' 'ग'. के आधार पर हम निष्कर्ष 'घ' पर पहंचते हैं। 'क ... घ' यह युक्ति शृंखला का रूप हुआ। इस शृंखला पर विचार करने से एक जिज्ञासा यह होती है कि एक वाक्य से दूसरे वाक्य पर हम कैसे आते हैं? यदि पहले वाक्य को ही अस्वीकार कर दिया जाय, तब क्या दूसरे वाक्य पर आ सकते हैं? स्पष्ट है, ऐसा नहीं हो सकता। पहले वाक्य से दूसरे वाक्य पर आने के लिये पहले वाक्य का स्वीकार आवश्यक शर्त है। इस स्वीकार का स्वरूप एक प्रकार से विश्वास व्यक्त करना है। प्रत्येक वाक्य के बाद एक अव्यक्त विश्वास-प्रकाशक स्वीकारोक्ति अगले वाक्य तक आने में सहायक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि युक्ति जिस सीमा में ज्ञान के व्यापार में स्वीकार की जाती है या की जा सकती है, अपनी गत्यात्मकता के लिये विश्वास पर टिकी होती है।
विश्वास की, युक्ति के विषय में एक और मौलिक भूमिका है। यदि पूछा जाय कि ज्ञान-व्यापार में युक्ति ही क्यों? जैसा ऊपर संकेत किया गया है, युक्ति के नियम उसे वस्तुनिष्ठता प्रदान करते हैं तथा वे किसी स्थापना या निष्कर्ष को मात्र कल्पना होने से बचाते हैं। युक्ति साधार होती है। परन्तु हम इस प्रक्रिया को भी क्यों स्वीकार करना चाहते हैं? क्योंकि हमें यह सहज ही विश्वास होता है कि युक्ति हमें
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