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सम्यग्दर्शन : विविध
३८७ कोई शाश्वत सत् ही हो सकता है? अस्थायी विषय का ज्ञान वास्तविक ज्ञान क्यों नहीं हो सकता? लौकिक तथा ऐहिक सन्दर्भ में बुद्धि एवं श्रद्धा की क्या भूमिका है ?
दैनन्दिन व्यवहार हो, ज्ञान-विज्ञान का अनुसन्धान हो, साधारण व्यक्ति साधारण अनुभव के आधार पर अपना काम चलाता हो, अथवा वस्तुओं या घटनाओं का विधिवत् अन्वीक्षण हो, हम पातें है कि प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा युक्ति तथा विश्वास तीनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं सीमाएं परिलक्षित होती हैं। साधारण सन्दर्भ में यह हम सभी के अनुभव में आता है कि बहुत कुछ हम अनजाने, अनौपचारिक, सुनी सुनाई बातों को मान लेते हैं। इस प्रकार की जानकारी हमारे विचारों तथा निश्चयों पर तब तक प्रभाव डालती रहती है, या यूं कहें कि इस प्रकार की जानकारी पर हमें तब तक संशय या शंका नहीं होती, जब तक हमें अपने कार्यों में किसी प्रकार की हानि अथवा असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। इस प्रकार की बात तब भी होती है जब हमें कुछ पता करना होता है, कुछ खोजना होता है, किसी समस्या का समाधान तलाश करना पड़ता है।
संशय तथा शंका का यह संदर्भ तब एक.कठिन उलझन तथा तनाव का रूप ग्रहण कर लेता है जब हम कर्तव्य के निर्धारण में किसी स्पष्ट मार्ग अथवा दिशा को नहीं पाते। ऐसी अवस्थाओं में प्राप्त और उपलब्ध जानकारी या तो अपर्याप्त सिद्ध होती है अथवा भ्रान्त तथा व्यामोह पूर्ण । स्पष्ट है ऐसी अवस्था में प्रत्यक्ष से अधिक मदद नहीं मिलती। प्रथम तो प्रत्यक्ष वर्तमान तक सीमित होता है और वर्तमान स्वयं काल का एक विलक्षण आयाम है। वह क्षण से सीमित है, दूसरी ओर अपने इस अस्थायी रूप में वह जैसे सदैव हमारे सम्मुख रहता है। प्रत्यक्ष के सन्दर्भ में दूसरी कठिनाई यह है कि वह समस्या को एक प्रदत्त के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि उस समस्या का समाधान उसी रूप में प्रत्यक्ष नहीं होता। यदि ऐसा नहीं होता तो समाधान के लिए अन्वीक्षण की आवश्यकता नहीं होती और उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। हां, इसके विरुद्ध यह कहा जा सकता है कि जब भी समाधान उपलब्ध होगा, तब वह क्षण तो प्रत्यक्ष का विषय होगा और इस दृष्टि से समाधान प्रत्यक्ष से परे नहीं होगा। परन्तु यह तथ्य प्रत्यक्ष के वर्तमान सम्बन्धी विरोधाभासी पक्ष को ही उजागर करता है तथा वह स्वयं एक समस्या एवं उलझन का रूप रखता है। यहाँ हम भ्रान्त प्रत्यक्ष की समस्या को छोड़ रहे हैं जो प्रसिद्ध है तथा अनन्त विचार का विषय रही है।
कहा जा सकता है कि मानवीय चेतना अथवा मानस का एक विलक्षण पक्ष उसकी बुद्धि एवं यौक्तिक क्षमता है। यह क्षमता हमें प्रदत्त के परे, अव्यक्त की ओर ले जाती है तथा जो व्यवहित है उसका परिचय कराती है। यद्यपि बुद्धि हमें प्रदत्तों के प्रत्यक्ष के परे ले जाने में सहायक होती है, परन्तु उसकी सक्रियता के लिये प्रदत्तों, प्रत्यक्ष द्वारा साक्षात् किये गये विषयों तथा गत अनुभव की अपेक्षा होती है। हमें अनुमान अथवा युक्ति के लिये आधार की आवश्यकता होती है। अनुमान तथा युक्ति की प्रक्रिया किन्हीं नियमों के आधार पर अग्रसर होती है। ये नियम ही युक्ति के स्वरूप को नितान्त मनोगत होने से, कल्पनाशील होने से पूर्वाग्रह के दुष्प्रभावों से
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