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जिनवाणी- विशेषाङ्क
अवस्थाओं में किसी निश्चयात्मक स्थिति पर पहुंचने के लिये हम अनेक प्रकार के तरीके अपनाते हैं ।
भारतीय दार्शनिकों ने इस संबंध में अनेक प्रमाण दिये हैं—यथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापति, अनुपलब्धि, शब्द, संभव, ऐतिह्य आदि । इस विविधता को मूलतः प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द में समेकत्र कर लिया जाता है। पश्चिम में भी स्थूल रूप से, इन तीन पर ही बल दिया जाता है। वहां अनुमान को अधिक विशेषीकृत रूप से लिया जाता है। अनुमान पर आश्रित ज्ञान को युक्तियुक्त ज्ञान के अन्तर्गत लिया जाता है। इसके विपरीत विज्ञान का सन्धान तथा अन्वीक्षण मूलतः प्रत्यक्ष पर आश्रित होता है । इन दो प्रवृत्तियों से हटकर धार्मिक विषयों के संदर्भ में शब्द के निकट पड़ने वाले दिव्य उद्घाटन एवं धार्मिक गुणों के प्रामाण्य पर बल दिया जाता है 1
जब प्रत्यक्ष तथा युक्ति अथवा अनुमान काम नहीं देते तब बहुधा शब्द अथवा श्रुति का आश्रय लिया जाता है । इस अवस्था में संशय तथा शंका को छोड़कर विश्वास तथा श्रद्धा का पल्ला पकड़ना पड़ता है । ज्ञानियों, सन्तों एवं आप्त पुरुषों का अनुभव, उनकी अनुभूतियों तथा तदनुरूप उनके प्रवचन उस आलोक का स्त्रोत बनते हैं, जिसमें तत्त्व के स्वरूप को समझने तथा जीवन के लक्ष्य को निश्चित करने में मदद मिलती है । धर्मग्रन्थ अथवा आगम ग्रन्थ भी इसी रूप में मार्गदर्शन का माध्यम समझे जाते हैं । परन्तु जैसा कि सर्वविदित है, ये स्रोत एकरूप तथा किसी एक सुनिश्चित ज्ञान को देने वाले नहीं होते। उनके व्यक्त रूप बहुविध तथा बहुधा एक दूसरे से भिन्नता और विरोध रखते प्रतीत होते हैं। ऐसा न केवल विभिन्न संस्कृतियों के मध्य होता है, अपितु एक ही सांस्कृतिक परम्परा में भी देखा जा सकता है । एक ही धार्मिक सम्प्रदाय कालक्रम में उपसम्प्रदायों में विभक्त हो जाता है। नये सम्प्रदाय उत्पन्न होते जाते हैं । ये तथ्य विश्वास तथा श्रद्धा की पुष्टि में बाधक बनते हैं तथा संशय एवं शंका को पुनः जगाते हैं । यद्यपि इस संदर्भ में एक दिशा सभी धर्मों तथा धर्मग्रन्थों एवं महापुरुषों के प्रवचनों में एक ही पाठ पढ़ने तथा ग्रहण करने का रूप लेती हुई प्रतीत होती है, परन्तु यह सर्वविदित है कि ऐसा उन मतभेदों, परस्पर तनावों को दूर करने के प्रयास में होता है, जो धर्म-सम्प्रदायों के बाहुल्य तथा उनमें परस्पर मौलिक भेदों के कारण उत्पन्न होते हैं तथा एक प्रकार से अपने प्रेरक उद्देश्य से विपरीत दिशा में जाने वाले बन जाते हैं ।
एक धारणा के अनुसार ज्ञान वास्तविक ज्ञान तभी कहला सकता है, जब उसके विषय शाश्वत हों । इसीके अनुरूप मानवीय चेष्टा की सार्थकता भी इस समझ पर आश्रित मानी गई कि उसका लक्ष्य शाश्वत और परम हो और ऐसा मानते हुए, साधारण आनुभविक तथा लौकिक सन्दर्भ को अर्थशून्य, अज्ञानसूचक, भ्रान्त तथा भ्रष्ट समझा गया । अब यदि इस बात पर ध्यान दें कि मनुष्य की समस्याएं तथा सुविधाएं अधिकतर उसके ऐहिक जीवन से संबंधित हैं, उनका निराकरण तथा समाधान इसी जीवन से संबंध रखते हैं तथा अपेक्षित हैं, तब ज्ञान और कर्म के विषय में भिन्न प्रकार से सोचने की आवश्यकता प्रतीत होती है। इस बात पर पुनः ध्यान देगा आवश्यक लगता है कि क्या ऐसा मानना आवश्यक है कि वास्तविक ज्ञान का विषय
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