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________________ सम्यग्दर्शन : विविध ३९१ जितनी-जितनी आस्था और अपूर्वता है, उतनी - उतनी सम्यक्त्व की निर्मलता समझ लेनी चाहिये । 'श्रीमद् राजचन्द्र' इस पुस्तक में श्रीमद्जी के पत्रव्यवहार, काव्य आदि का संकलन है। इस पुस्तक की चतुर्थ आवृत्ति (प्रकाशक श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, स्टेशन अगास, व्हाया आणंद, गुजरात) में जो उनके पत्र या पत्रोतर दिये गये हैं उनमें से पत्र नं. ३२४ में आपने कहा है- 'सम्यग्दर्शन का मुख्य लक्षण वीतरामता जानता हूं और वैसा अनुभव है।' यह आपकी बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। जब तक साधक में वीतरागता उत्पन्न नहीं होती तब तक सम्यग्दर्शन या समकित उत्पन्न हुआ है ऐसा कहा नहीं जा सकता। यहां वीतरागता का मतलब पूर्ण वीतरागता नहीं, लेकिन कषायों का उपशम है । उपशम के साथ-साथ साधक में मिथ्यात्व का अभाव भी अभिप्रेत है । श्रीमद्जी ने वीतरागता के अतिरिक्त उपदेशछाया में (पाना ७४२) पर सम्यक्त्व के और कुछ लक्षण बताए हैं । वे हैं १. कषायों की मंदता और उनके रस की तीव्रता का फीकापन । २. मोक्षमार्ग की तरफ मुड़ना । ३. संसार बंधन रूप लगना अथवा संसार कड़वा जहर लगना । ४. सब प्राणियों पर दयाभाव, उससे भी विशेषकर स्वयं की आत्मा के प्रति दयाभाव । ५. सत् देव, सत् धर्म और सद्गुरु पर श्रद्धा । साधक का यथार्थ ध्येय 'आत्मा' यानी आत्मप्राप्ति हो तो सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है । पाना ७०९ पर श्रीमद्जी ने सम्यक्त्व के दो प्रकार कहे हैं- १. व्यवहार सम्यक्त्व, यानी सद्गुरु के वचनों का श्रवण, उन वचनों पर विचार और उनका अनुभव (२) परमार्थ सम्यक्त्व, यानी आत्मा का परिचय होना । श्रीमद्जी आगे कहते हैं, अनंतानुबंधी कषायचतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और समकित मोहनीय- इन सात प्रकृतियों का क्षय होने पर सम्यक्त्व प्रगट होता है । मिथ्यात्व मोहनीय का अर्थ है— उन्मार्ग यानी गलत मार्ग को मोक्षमार्ग मानना और मोक्षमार्ग को उन्मार्ग मानना । उन्मार्ग से मोक्ष नहीं हो सकता, दूसरा कोई मार्ग होना चाहिये (मोक्षमार्ग पर श्रद्धा न होना) यह 'मिश्र मोहनीय' है । आत्मा यह हो सकता है, ऐसा ज्ञान होना 'सम्यक्त्व मोहनीय' और 'आत्मा यह है' ऐसा निश्चयभाव परमार्थ सम्यक्त्व है 1 श्रीमद्जी ने 'व्याख्यानसार' में 'सम्यक् दर्शन' के सम्बन्ध में निम्न बाते कही हैं । १. आप्त पुरुष, सर्वज्ञ और ज्ञानी पर श्रद्धा और सत्पुरुष, जो सर्वज्ञ की वाणी का उपदेश देते हैं उन पर श्रद्धा सम्यक्दर्शन है । २. जिस साधक का अज्ञान और अहंकार दूर हुआ हो वही सम्यग्दर्शन का अधिकारी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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