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________________ महात्मा गांधी की दृष्टि में जागृत मनुष्य R डा. डी.आर. भण्डारी जिसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त है, वह जागृत मनुष्य है। महात्मा गांधी के साहित्य एवं चिन्तन में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति की सीधी चर्चा नहीं मिलती, किन्तु नैतिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से जागृत मनुष्य का संकेत मिलता है। लेखक ने गांधीजी के मन्तव्यों को लेकर जैनदर्शन में प्रतिपादित अहिंसादि सद्गुणों से उन्हें जोड़ा है। जागृत या सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का आचरण कैसा होता है, इस पर प्रस्तुत निबंध में गांधीजी की दृष्टि से विचार किया गया है। -सम्पादक जैन दर्शन के अनुसार सम्यक् दर्शन के द्वारा ही मानव जागृत होता है एवं उसके द्वारा ही वह मुक्ति की राह में आगे बढ़ता है। यहां तक कि श्रावक धर्म की भूमिका को प्राप्त करने के पूर्व सम्यक् दर्शन की प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। महात्मा गांधी ने भी सम्यक् दर्शन के महत्त्व को स्वीकार करते हुए बताया है कि मानव की जागृति सम्यक् दर्शन द्वारा ही सम्भव है। जागृत मनुष्य ही साधना के मार्ग पर आगे बढ़ पाता है। जैन-आचार्यों ने जिन पाँच महाव्रतों को स्वीकार किया है वे हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपिरग्रह तथा ब्रह्मचर्य। इन्हें गांधीजी ने भी स्वीकार किया है और इनके साथ कुछ और व्रतों को भी अपनाया है जो एकादश व्रतों के रूप में गांधीजी के नैतिक दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त माने जाते हैं। यहां पर हम इस बात को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि जिन महाव्रतों का पालन करने से, जैन दर्शन के अनुसार, सम्यक् दृष्टि पुष्ट होती है तथा मनुष्य निद्रा से जागृति की ओर बढ़कर 'जागृत मनुष्य' का स्वरूप धारण करता है उन्हीं महान् सिद्धान्तों को गांधीजी ने अपनाकर उन्हें व्यवहार में लाने का सफल प्रयास किया एवं समस्त जगत् को यह दिखाया कि इन सिद्धान्तों की प्रभावशीलता कितनी है। गांधीजी की यह दृढ़ मान्यता है कि नैतिकता और आध्यात्मिकता के इन अमूल्य सद्गुणों को जागृत मनुष्य अवश्य अपनाता है। जब मनुष्य अपने अन्तःकरण के द्वारा इन सद्गुणों को प्राप्त करता है एवं उन पर आचरण करता है तो उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है. और इस अवस्था में वह 'जागृत मनुष्य' के रूप में रूपान्तरित होकर अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है। यहां हम उन कुछ सद्गुणों एवं नैतिक व आध्यात्मिक सिद्धान्तों का विवेचन करना आवश्यक समझते हैं जिन्हें अपनाकर एवं जिन पर आचरण करके, गांधीजी के विचार में, मनुष्य 'जागृत मनुष्य' बन पाता है । अहिंसा एक सद्गुण है। यह न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक सद्गुण भी है। गांधीजी के अनुसार अहिंसा जीवन का उच्चतम आदर्श है। जैन धर्म के मत को स्वीकार करते हए गांधीजी ने भी यह माना है कि अहिंसा का अर्थ है क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, स्वार्थ आदि से प्रेरित होकर किसी प्राणी को अपने मन, वचन अथवा कर्म के द्वारा किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना । अहिंसा के इस निषेधात्मक पक्ष के अतिरिक्त गांधीजी ने इसके भावात्मक पक्ष को भी प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार अहिंसा के अर्थ में सभी प्राणियों के प्रति प्रेम, दया, सहानुभूति, आत्मशुद्धि, आत्मसंयम, निर्भयता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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