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________________ ३८० जिनवाणी- विशेषाङ्क है और जल स्वच्छ हो जाता है, उसी तरह श्रद्धा से चित्त की शुद्धि होती है। दान देने, शील की रक्षा करने, उपोसथ करने एवं भावना का आरम्भ करने आदि कार्यों में श्रद्धा पूर्वगामी होती है । इसलिए इसे बोधिपक्षीय धर्मों का एक विशिष्ट अंग माना गया है । जैन धर्म में भी श्रद्धा को सम्यग्दर्शन का एक विशिष्ट अंग माना गया है। वह भेदविज्ञानपूर्वक उत्पन्न होती है । (नियमसार, तात्पर्यटीका, १३) । दर्शन, रुचि, प्रत्यय और श्रद्धा ये उसके समानार्थ शब्द हैं । इसीसे सम्यग्दर्शन के आठ अंगों निःशंकित, निष्कांक्षित आदि का जन्म होता है । संवेग, प्रशमता आदि गुणों का उद्भव भी यहीं होता है । सम्यग्दर्शन और बोधिचित्त 1 जैनदर्शन जिसे सम्यग्दर्शन कहता है उत्तरकालीन बौद्धधर्म में उसे ही बोधिचित्त कहा गया है । बोधिचित्त शुभ कर्मों की प्रवृत्ति का सूचक है । उसकी प्राप्ति हो जाने पर साधक नरक, तिर्यक्, यमलोक, प्रत्यन्त जनपद, दीर्घायुष देव, इन्द्रियविकलता, मिथ्यादृष्टि और चित्तोत्पाद विरागिता इन आठ तत्त्वों से विनिर्मुक्त हो जाता है। इस अवस्था में साधक समस्त जीवों के उद्धार के उद्देश्य से बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए चित्त को प्रतिष्ठित कर लेता है। प्रसिद्ध ग्रन्थ बोधिचर्यावतार में इसके दो भेद किये गये हैं- बोधिप्रणिधि चित्त और बोधिप्रस्थान चित्त । स्व-पर भेदविज्ञान अथवा हेयोपादेय ज्ञान सम्यग्दर्शन है । वह कभी स्वतः होता है, कभी परोपदेशजन्य होता है । संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य ये आठ गुण सम्यग्दृष्टि के होते हैं । निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के . सम्यग्दर्शन बोधिचित्त अवस्था में दिखाई देते हैं। पर उसके अन्य भेद बोधिचित्त के भेदों के साथ मेल नहीं खाते । सम्यग्दृष्टि के सभी भाव ज्ञानमयी होते हैं । मिथ्यात्व आदि कर्म न होने के कारण ज्ञानी को दुर्गति प्रापक कर्मबन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि भी अधिकांश लक्षणों से विनिर्मुक्त रहता है । वह नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्रीत्व तथा निम्नकुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता ' वज्रतन्त्र परम्परा में वज्रसत्त्व बोधिचित्त के रूप में व्याख्यायित है । यह चित्त की एक i अवस्था है जिसमें शून्यता और करुणा आत्मा के प्रधान तत्त्व बन जाते हैं । परस्पर मिश्रित होकर तान्त्रिक बौद्धधर्म में शून्यता और करुणा को क्रमशः प्रज्ञा और उपाय की संज्ञा दी गई है । शून्यता पूर्णज्ञान का प्रतीक है जिसमें सांसारिक दुःख निर्मूल हो जाता है और करुणा से व्यक्ति दूसरों के दुःखों से दुःखी हो जाता है। प्रज्ञा तथता है, और उपाय अनुभूति का साधन है जो दुःख से मुक्त कराता है । प्रज्ञा और शून्यता, समानार्थक है, पर करुणा के लिए उपाय का प्रयोग कुछ पारिभाषिकता लिये हुए है। वज्रतन्त्र-परम्परा में इनका बेहद विकास हुआ है। बोधिचित्त और सम्यग्दर्शन की तुलना करने पर ऐसा लगता है कि बौद्धधर्म में श्रद्धा और करुणा का उपयोग कापालिक साधना में भी किया गया है जहां अहिंसा और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों से साधक बुरी तरह पदच्युत हो जाता है जबकि जैनधर्म का सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञानी,सम्यक् चारित्र सम्पन्न और मोक्षमार्ग का वीतरागी पथिक होता है । -न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर ४४०००१, फोन नं. ५४१७२६ संदर्भ १. मज्झिमनिकाय १.३०१; विसुद्धिमग्ग १६.९५ २. विसुद्धिमग्ग पृ. ३२४ ३. रत्न करण्ड श्रावकाचार ३५-३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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