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बौद्ध-जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन : एक समीक्षा
Xxx डॉ. भागचन्द जैन 'भास्कर'" जैन-बौद्ध धर्म श्रमण-संस्कृति की अन्यतम शाखायें हैं, इसलिए उनमें पारस्परिक सम्बन्ध अपेक्षाकृत अधिक दिखाई देते हैं। दोनों धर्मों के प्रासाद रत्नत्रय के सबल स्तम्भों पर खड़े हुए हैं । जैनधर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का मार्ग मानता है और बौद्ध धर्म प्रज्ञा, शील, समाधि से निर्वाण तक पहुंचाता है । महावीर और बुद्ध, दोनों ने संसार को अनित्य और दुःखदायी माना है। उनकी दृष्टि में सांसारिक पदार्थ क्षणभंगुर हैं और उनके प्रति मोह जन्म-मरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है । इसका मूल कारण अविद्या, मिथ्यात्व और राग-द्वेष है। राग-द्वेष से अशुद्ध भाव, अशुद्ध भाव से कर्मों का आगमन, बन्धन और उदय, उदय से गति, गति से शरीर, शरीर से इन्द्रियां, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से सुख - दुःखानुभूति होती है । महावीर ने इसी को 'भवचक्र' कहा है और राग-द्वेष से विनिर्मुक्त को ही मोक्ष बताया है । बुद्ध ने इसी को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद' कहा है जिसे उन्होंने उसके अनुलोम-विलोम रूप के साथ सम्बोधिकाल में प्राप्त किया था। उत्तरकाल में प्रतीत्यसमुत्पाद का सैद्धान्तिक पक्ष दार्शनिक रूप से विकसित हुआ और यह विकास स्वभावशून्यता तक पहुंचा ।
आष्टांगिक मार्ग तीनों स्कन्धों में संगृहीत हो जाता है । तीन स्कन्ध हैं – प्रज्ञा, शील और समाधि। सम्यक् आजीव, सम्यक् वाचा और सम्यक् कर्मान्त शीलस्कन्ध में, सम्यग्व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक्समाधि समाधि स्कन्ध में तथा सम्यग्दृष्टि और सम्यक् संकल्प प्रज्ञास्कन्ध में संगृहीत हैं । शील, समाधि व प्रज्ञा ये तीनों समन्वित रूप में उसी प्रकार विशुद्धि का मार्ग हैं जिस प्रकार जैन धर्म में सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र के संगठित मार्ग को ही मोक्ष का मार्ग माना गया है । शील से भिक्षु तीन विद्याओं को, समाधि से छह अभिज्ञाओं को और प्रज्ञा से चार प्रतिसंविदों को प्राप्त करता है । इसी तरह शील से स्रोतापन्न और सकृदागामी का, समाधि से अनागामी और प्रज्ञा से अर्हत्व कोतन किया गया है ।
आष्टांगिक मार्ग का पहला अंग है - सम्यग्दृष्टि, जिसका अर्थ है यथार्थदृष्टि, शुद्धदृष्टि, निर्मल प्रज्ञा । प्रज्ञा, प्रजानन, विचय, प्रविचय, धर्मविचय, सल्लक्षण-उपलक्षण, कौशल, नैपुण्य, भूरिमेधा, परिणायिका, विपश्यना, संप्रजन्य, प्रज्ञेन्द्रिय, प्रज्ञाबल, प्रज्ञाशस्त्र, प्रज्ञा ओभास, प्रज्ञा प्रद्योत, प्रज्ञारत्न और अमोह आदि विविध नामों से सम्यग्दृष्टि अभिहित होती है । इनमें सम्यक् दृष्टि की सभी विशेषतायें इंगित हो जाती हैं। जैसे इनमें जैनधर्म में जिसे तत्त्वदृष्टि अथवा भेदविज्ञान कहा है ( समयसार, आत्मख्याति, १५८) बौद्धधर्म में उसी को धर्मप्रविचय की संज्ञा दी गई है । धर्मप्रविचय का अर्थ है— आस्रव - अनास्रव का ज्ञान। इसी को प्रज्ञा कहा गया है। प्रज्ञा का तात्पर्य है अनित्य आदि प्रकारों से धर्मों को जानने वाला धर्म । यह एक कुशल धर्म है जो मोहादि के दूर होने से उत्पन्न होता है । इससे पदार्थ के यथार्थ स्वभाव का ज्ञान हो जाता है । यही तत्त्वज्ञान है । इसमें जैनधर्म का सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान गर्भित है ।
'सम्मादिट्ठि' में श्रद्धा का तत्त्व जुड़ा हुआ है जो शोभनचैतसिकों में एक है । इसका सम्बन्ध विश्वास से है । जो विश्वास उत्पन्न करे वह श्रद्धा है । चित्त की परिशुद्धि करना उसका कृत्य है । जिस तरह कतक फल आदि डालने से जल का कीचड़ नीचे जम जाता
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* अध्यक्ष, पालि- प्राकृत-विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
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