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________________ ३७८ । जिनवाणी-विशेषाङ्क होता है। जैन दर्शन में प्रतिपादित सम(शम) के अन्तर्गत इनमें से शम, तितिक्षा एवं समाधान का समावेश हो जाता है। दम एवं उपरति का समावेश संवेग एवं निर्वेद में होता है। श्रद्धा को आस्तिक्त्य में समाहित किया जा सकता है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन में प्रतिपादित साधन-चतुष्टय के अन्तर्गत शमादिषटक् का जैन दर्शन में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन के व्यवहार-लक्षणों से साम्य है। . (४) मुमुक्षुत्व – मोक्ष की इच्छा होना मुमुक्षुत्व है। जैन दर्शन में सम्यग्दृष्टि जीव मोक्ष की इच्छा से युक्त होता है, यह तथ्य उसके 'संवेग' नामक लक्षण से अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार वेदान्त में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु मान्य योग्यताएं जैनदर्शन में प्रतिपादित सम्यग्दृष्टि व्यक्ति से पूर्णतः मेल खाती हैं। इसी प्रकार अन्यान्य दर्शनों में भी अन्वेषण करने पर सम्यग्दर्शन की अवधारणा प्राप्त होती है। सांख्यदर्शनसम्मत विवेकख्याति, भगवद्गीताप्रतिपादित समदर्शन आदि सिद्धान्त कहीं न कहीं एकसूत्रता का ही व्याख्यान करते हैं। इसी प्रकार न्यायदर्शन में निरूपित तत्त्वज्ञान भी सम्यग्दर्शन को ही व्यक्त करता है। पूर्वाग्रहग्रसित होने के कारण हम आस्तिक-नास्तिक के विभागरूप पञ्जरस्थ हैं। अन्यथा तो सम्यग्दर्शन की अवधारणा तथा वेदान्तसम्मत कतिपय श्रुतियाँ लगभग एकार्थ का प्रतिपादन करती हुई ही प्रतीत होती हैं। सन्दर्भ १. तत्त्वार्थ सूत्र,१.१ २. तत्त्वार्थसूत्र,१.२ ३.सर्वार्थसिद्धि,१.१ ४.भगवती आराधना मूल,७३६ ५.द्रव्यसंग्रह टीका १४.४२.४ शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धानं .. ६.बृहदारण्यक,४.४.५ ७.भगवती आराधना मूल,७३५ ८.रयणसार,१५८ सम्मइंसणसुद्धं हि जावद लभदे हि ताव सुही ।' ९.मुण्डकोपनिषद्,२.२८ १०.अल्पान्तरादभ्यर्हित पूर्व निपतति । कथम् अभ्यर्हितत्वम् ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् । । . सर्वार्थसिद्धि,१.१ ११. सम्मत्तादो नाणं नाणादो सव्वभावउवलद्धी उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ।' सेयासेयविदण्हू उद्धददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥-दर्शनपाहुड,१५ एवं १६ १२.वेदान्तसार, अधिकारी वर्णन १३. वात्स्यायन ने न्यायभाष्य में तत्त्वज्ञान के लिए 'सम्यग्दर्शन' शब्द का प्रयोग किया है, यथाअपवर्गोऽधिगन्तव्यस्तस्याधिगमोपायस्तत्त्वज्ञानम् । एवं चतसृभिर्विधामिः प्रमेयं विभक्तमासेवमानस्याभ्यस्यतो भावयतः सम्यग्दर्शनं यथा. भूतावबोधस्तत्त्वज्ञानमुत्पद्यते ।-न्यायभाष्य ४.२ की भूमिका सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्रविद्यालय, जोधपुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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