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________________ ३७७ सम्यग्दर्शन : विविध (३) तत्त्वार्थ सत्र में सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र से पूर्व सम्यग्दर्शन का कथन किया गया है। इस सन्दर्भ में सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में पूज्यपादाचार्य भी सम्यग्दर्शन के प्राधान्य का समर्थन करते हैं - द्वन्द्व समास का एक नियम है कि अल्पाक्षर वाले पद को पूर्व में रखा जाये। दर्शन की अपेक्षा ज्ञान में अल्पाक्षर हैं। अतः ज्ञान को पूर्व में रखा जाना चाहिए था। परन्तु एक नियम है - 'अभ्यर्हितत्वम्', जो अधिक पूज्य होता है उसको पूर्व में रखा जाता है । 'दर्शन' ज्ञान की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण होने से पूज्य है। सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता आती है। अतः रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन का पूर्वप्रयोग किया गया है। ठीक इसी प्रकार 'आत्मा वारे द्रष्टव्यः' इस श्रुति में श्रोतव्य:, मन्तव्य: आदि पदों से पूर्व में द्रष्टव्य पद का प्रयोग कर साक्षात्कार के प्राधान्य को स्वीकार किया गया है। ___(४) सम्यग्दर्शन के अनन्तर क्या होता है, इस विषय में कहा गया है - 'सम्यक्त्व से तो ज्ञान सम्यक् होता है। सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान इन दोनों से सर्वपदार्थों अथवा तत्त्वों की उपलब्धि होती है। पदार्थों की उपलब्धि होने पर श्रेय तथा अश्रेय का ज्ञान होता है। श्रेय तथा अश्रेय को जानकर वह पुरुष मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक् स्वभावयुक्त होकर अभ्युदय प्राप्त करता है, तदनन्तर निर्वाण को प्राप्त होता है।११ वेदान्त दर्शन में साधन-चतुष्टय वेदान्त दर्शन में वेदान्त के अधिकारी के विषय में चर्चा की गई है। अधिकारी कैसा हो? इस विषय में एक विशेषण प्रयुक्त हुआ है—'साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता'१२ जो साधनचतुष्टय से सम्पन्न हो ऐसा प्रमाता ही वेदान्त का अधिकारी है। वेदान्त का अधिकारी एक प्रकार से सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न होता है। जैन दर्शन में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन एवं वेदान्त के साधन-चतुष्टय की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है । अत: वेदान्त के साधन चतुष्टय को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। (१) नित्यानित्यवस्तुविवेक - नित्य पदार्थों तथा अनित्य पदार्थों में भेदद्धि होना। नित्य तथा अनित्य पदार्थों के प्रति जब भेदबुद्धि होगी तो जीव अनित्य पदार्थों को हेय जानकर उनसे विरक्त हो जायेगा तथा नित्य पदार्थों को ग्रहण कर लेगा। जिस प्रकार कि सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान से पदार्थों की उपलब्धि होने पर श्रेय तथा अश्रेय में विवेक होने से पुरुष अश्रेय अथवा मिथ्यात्व को छोड़ देता है तथा श्रेय को ग्रहण कर निर्वाणप्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। (२) इहामुत्रार्थफलभोगविराग – इस लोक एवं परलोक में प्राप्त होने वाले फलभोग से वैराग्य होना। वेदान्त दर्शन में ब्रह्मज्ञान के लिए फलभोग-विरक्ति को आवश्यक माना गया है। यह तथ्य जैनदर्शन में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन के पांच लक्षणों (शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य) में से निर्वेद की स्मृति दिलाता है। सम्यग्दृष्टि जीव निर्वेद लक्षण से युक्त होने के कारण सांसारिक (इहलौकिक एवं पारलौकिक) भोगों से विरक्त होता है । (३) शमदमादि षट्क सम्पत्ति – १. शम २. दम ३. उपरति ४. तितिक्षा ५. श्रद्धा और ६. समाधान - इन छह सम्पत्तियों से सम्पन्न प्रमाता वेदान्त का अधिकारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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