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________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क तत्त्व + अर्थ श्रद्धान- 'तत्त्वार्थश्रद्धान' में तत्त्व तथा अर्थ दो शब्दों का प्रयोग किया गया है । यदि केवल 'अर्थश्रद्धान' कहा जाता तो अर्थ के धन, प्रयोजन, अभिधेय आदि अन्य सभी अर्थों का प्रसङ्ग हो जाता जो कि अभीष्ट नहीं था । केवल 'तत्त्वश्रद्धान' कहा जा सकता था, परन्तु यह भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि 'तत्त्व' पद से सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व आदि का ग्रहण हो जाता । कतिपय दार्शनिक तत्त्व को एक मानते हैं । अतः इन समस्त दोषों को दूर करने के लिए 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' कहा गया है । ३७६ सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान में भेद - सम्यग्दर्शन का लक्षण है – तत्त्वार्थश्रद्धान । सम्यग्ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा गया है ,३ 'येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । शङ्का होती है कि सम्यग्दर्शन में भी पदार्थ का निश्चय है और सम्यग्ज्ञान भी पदार्थ निश्चयात्मक रूप ही है। दोनों में फिर क्या भेद दृष्टिगोचर होता है ? उत्तर में कहा गया है कि दर्शन निर्विकल्पक है जबकि ज्ञान सविकल्पक है । जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियां हैं वे सब ज्ञानरूप हैं । सम्यग्दर्शन निर्विकल्पक होने के कारण अन्तर में अभिप्रायरूप से अवस्थित रहता है । आत्मानुभव सहित ही तत्त्वों की श्रद्धा अथवा प्रतीति सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन एवं उसका वैशिष्ट्य सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में प्रधान है तथा वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । अतः 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' केवल यही लक्षण प्राप्त नहीं होता, अपितु सम्यग्दर्शन की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है तथा उसकी विविध विशेषताओं का उल्लेख किया गया है (१) 'शुद्धात्मा ही उपादेय है' ऐसा श्रद्धान सम्यक्त्व है ।" जब सम्यग्दर्शन की यह व्याख्या प्राप्त होती है तो बृहदारण्यक की एक श्रुति स्मरण हो आती है - 'आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः । ६ यह वेदान्त श्रुति भी आत्मसाक्षात्कार की ओर प्रवृत्त करती है और सम्यग्दर्शन की यह व्याख्या कि 'शुद्धात्मा ही उपादेय है' दोनों ओर एक लक्ष्य का ही संकेत प्राप्त होता है । (२) सम्यग्दर्शन का माहात्म्य - वर्णन करते हुए कहा गया है - 'मा कासि तं पमादं सम्मत्ते सव्वदुक्खणासयरे ।' अर्थात् सम्यग्दर्शन सर्वदुःखों का नाश करने वाला है अतः इसमें प्रमादी मत बनो । अन्यत्र कहा गया है कि जब यह जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो जाता है तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता तब तक वह दुःखी बना रहता है । इसी अभिप्राय को वेदान्त दर्शन में भी अभिव्यक्त किया गया है قار ९ परावररूप उस तत्त्व का साक्षात्कार होने पर इस साधक की हृदयग्रन्थियाँ छिन्न हो जाती हैं, समस्त संशय दूर हो जाते हैं तथा समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं । जब सम्पूर्ण ग्रन्थियाँ तथा संशयादि समाप्त हो जायें तो जीव का सुखी होना निश्चित ही है तथा सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर भी जीव परमसुखी होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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