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________________ ३६९ सम्यग्दर्शन : विविध है और जब दःख भेजता है तो यह समझना चाहिये कि उसने अल्लाह की इच्छा के विरुद्ध काम किया है, कोई पाप किया है या श्रद्धा में कमी आई है। __ अरब राज्यों को इस्लाम के अधीन करने के बाद एक लम्बे समय तक इस्लाम और ईसाई राष्ट्रों के बीच यरूसलम पर कब्जा करने और अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए पश्चिमी एशिया में भीषण संघर्ष चला, जिसे धर्मयुद्ध (Crusades) कहते हैं। पहले धर्मयुद्ध में ईसाई राष्ट्र जीत गये और हजारों मुसलमान मारे गये या जिन्दे गाड़ दिये गये। ईसाइयों ने समझा कि ईश्वर हमारे साथ है और उनकी श्रद्धा को बहुत बल मिला। परन्तु बाद के धर्मयुद्धों में जो करीब २०० साल चले, ईसाई राष्ट्र हार गये और उन्हें पीछे हटना पड़ा। उन्हें दुःख हुआ कि बाद में ईश्वर ने उनका साथ नहीं दिया और उनकी श्रद्धा को झटका लगा। इस्लाम का जोश बढ़ा और वह तलवार के बल पर अफ्रीका और पूर्व की ओर बढ़ता गया। सैंकड़ों. वर्षों तक एशिया में निरन्तर सफलताओं ने मुसलमानों के मन में मोहम्मद और कान के प्रति श्रद्धा को बलवती बना दिया और वे ऊंची आवाज में कुरान की इस घोषणा का प्रचार करते गये कि “अल्लाह की नजरों में सच्चा धर्म इस्लाम ही है।"(कुरान ३.१९) राजनैतिक दृष्टि से एशिया के बड़े भाग पर एक लम्बे समय तक मुसलमानों का स्वामित्व रहा। यूरोप में ईसाई सत्ता में रहे । बहुत कम यहूदी इजरायल में रह गये। परन्तु धीरे-धीरे वे इजरायल लौटने लगे। द्वितीय विश्व युद्ध तक उनकी संख्या काफी हो गई और संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन का विभाजन कर एक भाग यहूदियों को और दूसरा भाग अरबों को सौंप दिया। तब से अरब देश इजरायल को अपना मुख्य शत्रु समझने लगे। अरबों ने इजरायल का नाश करने की ठान ली। परन्तु १९६७ के अरब-यहूदी युद्ध में अरबों की बुरी तरह पराजय हुई। प्रथम धर्मयुद्ध के बाद इस्लाम की इस तरह से बुरी पराजय कभी नहीं हुई। दुनिया के सभी मुसलमानों की श्रद्धा को यह देख कर बड़ा झटका लगा कि इस बार अल्लाह के सच्चे भक्तों का अल्लाह ने साथ नहीं दिया। तब से कई अरब देशों पर ईसाइयों का प्रभाव बढने लगा और पश्चिम एशिया के कई मुस्लिम देश अपने अस्तित्व के लिए अल्लाह की कृपा पर नहीं, बल्कि कुछ शक्तिशाली ईसाई राष्ट्रों की दया और कृपा पर निर्भर रहे हैं। उधर यहूदियों ने राष्ट्र के रूप में सैंकड़ों वर्षों से अपने खोये हुए सम्मान को पुनः प्राप्त कर लिया है। उपर्युक्त तथ्य यह बताते हैं कि व्यक्ति के जीवन में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रों के जीवन में भी धर्म और ईश्वर के प्रति श्रद्धा किस प्रकार बनती है, और हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश के साथ, उसमें भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। __ आधुनिक पाश्चात्त्य दर्शन में डेकार्ट द्वारा श्रद्धा के स्थान पर संशय की पद्धति (Cartesean Doubt) को अपनाने के बाद सेमिटिक धर्म के विद्वानों और वैज्ञानिकों के चिन्तन पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा विभिन्न धर्मशास्त्रों के तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप दार्शनिकों में धार्मिक कट्टरता कमजोर हुई है और सभी धर्मों के बौद्धिक वर्ग में अन्य धर्मों के प्रति सद्भाव बढ़ा है और सभी धर्मों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने के भी प्रयास हुए हैं। उदाहरण के लिए, यहूदी होते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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