SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन: जीवन-व्यवहार में स्थित होने का प्रयत्न करता है तथा उसे अपने पुरुषार्थ पर भरोसा होता है। वह जहां तक संभव है पर के आश्रय के त्याग हेतु प्रयत्नशील होता है। ___ * सम्यक्त्वी की वीतराग देव, पंचमहाव्रतधारी गुरु एवं जिनेश्वरों द्वारा प्रज्ञप्त धर्म पर दृढ़ आस्था होती है। जिन-प्रज्ञप्त तत्त्व को वह सत्य एवं निश्शंक मानता है - 'तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं ।' ___ * सादगी, सदभाव जैसे गुणों को धारण कर वह प्राणिमात्र को आत्मवत् समझता है। वह सबमें ज्ञानदर्शन-सम्पन्न आत्मा का दर्शन करता है। * परिवारादि सांसारिक कार्यों को सम्पन्न करते हुए भी वह उनसे अपने को निर्लेप रखता है। कहा गया है. सम्यग्दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तरगत न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल ॥ __ जैसे एक धायमाता दूसरे के बच्चे को खिलाती-पिलाती है, उसके सुख-दुःख का ध्यान रखती है, अच्छे ढंग से पालन-पोषण करती है, परन्तु मन में सावधान रहती है कि यह बच्चा उसका अपना नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि व्यक्ति परिवार का पालन करता है। __ जैसे किसी फिल्म में नायक-नायिका अपनी भूमिका का निर्वाह करते हए समझते हैं, यह उनकी भूमिका मात्र है, वास्तव में उनका दूसरा रूप भी है। फिल्म से हटते ही नायक-नायिका का वह रिश्ता समाप्त हो जाता है, जिसका उन्होंने फिल्म में निर्वाह किया था। फिल्म में वे पति-पत्नी थे, किन्तु फिल्म के बाहर वे मात्र मित्र या एक दूसरे के परिचित व्यक्ति हैं। सम्यक्त्वी भी इसी प्रकार जीवन में भूमिका का निर्वाह करता है, किन्तु सत्य का उसे भान रहता है। जैसे भरतचक्रवर्ती छह खण्ड का राज्य करते हुए भी अपनी आत्मा में रमण करते थे और आरीसा भवन में ही उन्होंने केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त कर लिया था। * सम्यक्त्वी मनुष्य घर-परिवार, कार्यालय-बाजार आदि सभी स्थानों पर ईमानदारी से कार्य करता है। उसकी हर क्षेत्र में प्रामाणिकता होती है। ___ * सम्यकत्वी सुख व दुःख की परिस्थितियों में समभाव रखता है। ज्ञानी के लिए कहा जाता है कि वह प्रायः सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी नहीं होता है, कहा जाता सुख दुःख दोनों बसत हैं, ज्ञानी के घट मांय। गिरि सर दीसे मुकुर में, भार भीजबो नाय ॥ जैसे दर्पण में पर्वत एवं तालाब का प्रतिबिम्ब आता है, किन्तु इससे दर्पण न तो भारी होता है और न ही गीला होता है। इसी प्रकार ज्ञानी (सम्यक्त्वी) के सुख एवं दुःख के कर्म उदय में आते हैं, किन्तु वह उनसे अप्रभावित ही रहने का प्रयत्न करता है। सम्यक्त्वी का यह चिन्तन होता है कि सुख-दुःख अपने भावों पर निर्भर करते हैं। दुःख की घड़ी में भी सुखी रहा जा सकता है। दुःख के क्षणों में वह सोचता है कि मुझे दुःख देने में कोई भी समर्थ नहीं है, मेरे द्वारा उपार्जित कर्मों का ही यह फल है, किन्तु इसे आगे कर्मबंध में निमित्त न बनने देने में मैं समर्थ हूँ। वस्तुतः दुःख से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy