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________________ सम्यक्त्वी का सौन्दर्य ___ श्रीमती अकलकंवर मोदी श्रीमती अकलकंवर जी मोदी एक साधनानिष्ठ स्वाध्यायी हैं। आपने प्रस्तुत लेख में सम्यक्त्वी के जीवन-व्यवहार पर प्रकाश डालते हुए आन्तरिक सौन्दर्य के विकास पर बल दिया है।-सम्पादक संसार में मनुष्य सौन्दर्य का पुजारी है। वह हर क्षेत्र में सुन्दरता चाहता है। रहने का भवन सुन्दर एवं चमकदार पत्थरों से बना हुआ हो, पहनने के कपड़े सुन्दर एवं स्वच्छ हों, खाने के लिए भोजन भी स्वादिष्ट एवं सुन्दर हो। इन सबमें सुन्दरता की तलाश करने वाले मनुष्य का स्वयं का जीवन सुन्दर है या नहीं, आचार-विचार अच्छे हैं या नहीं, चेहरे पर प्रसन्नता है या नहीं, यह चिन्तन उसके दिल-दिमाग में नहीं उठता। ऐसे मनुष्य को मिथ्यात्वी कहा जा सकता है । __ सम्यक्त्वी बाह्य वस्तुओं के सौन्दर्य में नहीं अटकता, किन्तु उसका जीवन सुन्दर होता है। जीवन के सुन्दर होने का आशय है - उसके आचार-विचार सुन्दर होते हैं, सबके साथ उसका व्यवहार सुन्दर होता है। वह स्वयं अपने दोषों को दोष रूप में मानकर उन्हें त्यागने का विचार करता है। उसका चेहरा प्रायः प्रसन्नमुद्रा में होता है। कहा जाता है - 'सूर्यमुखी दिन में खिलता है, रात में नहीं। चन्द्रमुखी रात में खिलता है, दिन में नहीं। सम्यक्त्वी का वदन सदा खिला रहता है, क्योंकि उसकी मुस्कान, किसी पर आश्रित नहीं।' * सम्यक्त्वी यह जानता है कि वह किसी अन्य का कर्ता-भोक्ता नहीं है तथा कोई अन्य उसका कर्ता-भोक्ता नहीं है। वह अन्य से सुखादि की अपेक्षा का त्याग . करके जीवन जीने का प्रयत्न करता है। वह जानता है कि उसका चेतन-चिदानन्द सर्वोपरि है। चेतना के अभाव में शरीर अपना कार्य नहीं कर सकता । मन बेचारा जड़ है । वह भी चेतना के अभाव में दौड़ नहीं लगा सकता। मैं शरीर से भिन्न हूँ, अजर-अमर-अविनाशी हूँ-ऐसा चिन्तन सम्यक्त्वी को होता है । वह सोचता है , एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ___ 'ज्ञान-दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मा ही मेरी है शेष सब बाह्य पदार्थ हैं, जिनका मात्र संयोग हुआ है।' वह समझता है कि कर्मों के कारण यह जो देहादि का संयोग हुआ है, वह अनित्य है। वह चिन्तन करता है राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार। मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ॥ राजा हो रंक, सबको एक दिन इस मानव देह का त्याग कर प्रस्थान करना है। सम्यक्त्वी जीव शरीर की क्षणभंगुरता को पहचानता है, संसार की असारता को जानता है, धन. की नश्वरता का उसे बोध होता है। इसलिए वह राग-द्वेषादि को कम करता हुआ जीवन के हर क्षेत्र में सावधान रहता है। * सम्यग्दर्शनी स्वभावतः स्वावलम्बी होता है। पुद्गल को पर समझ कर वह स्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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