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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार
३५७ ही उनके आने पर हर्ष होना, प्रेम-प्रीति उत्पन्न होना तथा अवसर प्रमाणे आहार, पानी, मकानादि व उपकरणादि से वैयावृत्य में आनंद मानना वात्सल्य अंग है। अहिंसा-धर्म में प्रीति करे, सत्यवान होकर ब्रह्मचर्य का पालन करे, परधन-परस्त्री के त्यागी के प्रति प्रमोद आवे लेकिन मिथ्यादृष्टि पर द्वेष भाव न करे उस पर करुणाबुद्धि आवे, ऐसा वात्सल्य भाव वीतरागता में सहायक बनता है।
गुणी जनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे,
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥ वात्सल्य भाव सम्यकत्व का अंग कैसे?
वात्सल्य भाव मन का मकरंद है। यहाँ यह प्रश्न है कि कितने ही मिथ्यात्वी जीवों के मन में अपने जाति, धर्म एवं राष्ट्र के प्रति वात्सल्य भाव होता है और सम्यक्त्वी में कदाचित् वात्सल्य दिखाई नहीं देता, अतएव इसे सम्यक्त्व का अंग कैसे माना जाए?
इसका समाधान यही है कि जैसे मनुष्य शरीर के हस्त-पादादिक अंग कहे जाते हैं वहां कोई मनुष्य ऐसा भी होता है कि जिसके हस्त-पादादि कोई अंग न हो, वहां उसके मनुष्य शरीर तो कहा जाता है परन्तु उन अंगों के बिना वह शोभायमान एवं सकल कार्यकारी नहीं होता, उसी प्रकार सम्यकत्व के वात्सल्यादि अंग कहे जाते हैं । वहां कोई सम्यकत्वी ऐसा भी हो जिसके वात्सल्य/निशंकितत्वादि में कोई अंग न हो, वहां उसके सम्यकत्व तो कहा जाता है, परन्तु उन अंगों के बिना वह निर्मल सकल कार्यकारी नहीं होता तथा जिस प्रकार बन्दर के भी हस्त पादादि अंग होते हैं, परन्तु मनुष्य की तरह नहीं होते हैं, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि के भी व्यवहार रूप में वात्सल्यादि अंग होते हैं, परन्तु जैसे निश्चय की सापेक्षता सहित सम्यकत्वी के होते हैं वैसे नहीं होते हैं ।(मोक्षमार्ग, अधिकार ९, पृष्ठ ३३९) अनुकम्पा एवं वात्सल्य भाव की वर्तमान में आवश्यकता
आज के इस भौतिक युग में जहां सत्ता एवं सम्पत्ति के अर्जन के लिये झूठ, चोरी एवं बेईमानी का बोलबाला बढ़ रहा है, विदेशी मुद्रा अर्जित करने हेतु बड़े-बड़े कत्लखाने खुल रहे हैं, शराब की दुकानें खुल रही हैं, पशु-पक्षियों की हिंसा गाजर-मूली की तरह हो रही है, प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन हो रहा है, पेड़-पौधे कट रहे हैं, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार समाप्त हो रहा है, जैन और अजैन सबमें रूप और रूपया कमाने की होड़ लगी हुई है। ऐसे कलुषित वातावरण में आदमी के मन की कोमल वृत्तिया संकुचित एवं कठोर होती जा रही हैं, तब किसी संत की वाणी फूट पड़ती है
भूखा प्यासा पड़ा पड़ौसी तेने रोटी खायी क्या? दुःखिया पास पड़ा है तेरे, तेने मौज उड़ायी क्या? दुःखियों के दुःख देखकर आंसू चार बहाया कर,
प्रेमी बन कर प्रेम से ईश्वर के गण गाया कर। अतएव दुःखी जीवों के प्रति करुणा एवं अनुकम्पा उपजे और प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव वात्सल्यभाव विकसित हो, यह हमारा पाथेय बने। ऐसा व्यक्ति स्व-पर कल्याणकारी कार्यों को करता हुआ इहलोक और परलोक दोनों में आनन्द को प्राप्त करता है ।
-जी-२१, शास्त्रीनगर, जोधपुर (राज.)
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