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________________ ३५५ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार भावनाओं को रोक नहीं पाये। इससे सबको सेवा का पाठ भी मिल गया। अनुकम्पा का फल इस अनुकम्पा के भाव से सातावेदनीय कर्म का बंध होना आनुषंगिक फल है। अनुकम्पा से शारीरिक एवं मानसिक समाधि का लाभ होता है तथा इस जन्म और अगले जन्म में सुख की प्राप्ति होती है। भूतव्रत्यनुकंपादानसंरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य । तत्त्वार्थसूत्र-६/१३ ___ अर्थात् जीवों की अनुकम्पा, व्रतीजनों की अनुकम्पा, दान, सराग संयम, क्षमा आदि ये सब साता वेदनीय कर्म के बन्ध के कारण हैं। भगवतीसूत्र में गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान फरमाते हैंसमाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलब्भई।- भगवतीसूत्र,शतक ७ जो प्राणी श्रमण, त्यागी-व्रतीजनों को सुख और समाधि पहुंचाता है उसे सुख एवं समाधि प्राप्त होती है। भरतजी ने पूर्व भव में मुनिजनों की सेवा कर समाधि पहुंचाई। फलस्वरूप चक्रवर्ती की अपार ऋद्धि सिद्धि के स्वामी बने। लेकिन व्रतीजनों की इस सेवा को सौदा नहीं बनाना है। यहाँ साधुओं की सेवा करो, ताकि आगे सुख मिले यह उद्देश्य समीचीन नहीं, साधुओं की सेवा कर्म-निर्जरा के लिये होनी चाहिये। जब अशुभ कर्म की निर्जरा होगी और शुभ कर्मों का बन्ध होगा तब सुख तो अपने आप. ही मिल जायेगा । वास्तव में सेवा में वस्तु की नहीं, भावना की कीमत है। जैन धर्म वस्तुवादी नहीं भावनावादी धर्म है। राजमती के जीव ने पूर्व भव में जब वे शंख राजा के रूप में थी मासखमण के पारणे में तपस्वी मुनि को दाखों का धोवण दान में दिया था लेकिन इसके कारण उन्होंने महान् पुण्यों का उपार्जन किया। ___अनुकम्पा से संसार सीमित हो जाता है तथा मनुष्यायु का बंध भी होता है। ज्ञाताधर्मकथा में मेघकुमार का वर्णन आता है। भगवान् महावीर मेघकुमार को पूर्व भव का वृतान्त सुनाते हुए कहते हैं-तुमने हाथी के भव में शश (खरगोश) को बचाने के लिये तीन दिन-रात अपने पैर को ऊपर रखा तथा पैर के अकड़ जाने से गिरकर तुम कालधर्म को प्राप्त हो गये। उसके परिणामस्वरूप तुमने मनुष्यायु का बंध किया तथा संसार सीमित कर लिया। तएणं मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए, जाव सत्ताणुकंपयाए, संसारे परित्तीकए, माणुसाउए णिबद्धे ।-ज्ञाताधर्मकथा, अध्याय-१, गाथा-१८३ __ हे मेघकुमार ! उस प्राणानुकम्पा यावत् भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार-भ्रमण को सीमित किया तथा मनुष्यायु का बंध किया। इतना ही नहीं प्रभु ने फरमाया है जे गिलाणं पडियरई, से मंदसणेण पडिवज्जइ । जे मंदसणेण पडिवज्जइ से गिलाणं पडियरइ । जो ग्लान या आतुर की सेवा करता है वह मुझे सेवता है जो मुझे सेवता है वह ग्लान को सेवता है। वात्सल्य 'वात्सल्य' सम्यक्त्व का एक अंग है। सम्यक्त्व के आठ अंग हैं, यथा निस्संकिय-निकखिय, निवितिगिच्छा, अमूढट्ठिी य। उववूह थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ ।।-उत्तराध्ययनसूत्र २८/३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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