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________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क ‘कहां है वह फल?' पिता ने छूटते ही पूछा । आप यही कहते आये हैं कि किसी गरीब को द्रव्य देने से परलोक में अमरफल मिलता है । अतएव भूख से छटपटाते लोगों को देखकर मैंने वे पैसे उन्हें दे दिये । हम खाते तो दो चार क्षण के लिये मुँह मीठा होता, किन्तु उन लोगों की कई दिनों की भूख की तड़पन शान्त हो गई । ३५४ करुणा के अभाव में सत्कर्म भी पनप नहीं सकते । करुणाशील व्यक्ति मारने, पीटने, धोखा देने की बात तो दूर मन में दूसरों को पीड़ा देने की बात भी सोच ही नहीं सकता, क्योंकि वह यह सोचेगा - जैसी पीड़ा मुझे होती है, वैसी पीड़ा अन्य को भी होती है । जिसके हृदय में दुःखी जीवों को देखकर कम्पन्न नहीं होता, करुणा की हिलौरें नहीं उठती, उस कठोर हृदय में सम्यक्त्व रूपी पुष्प कभी खिल नहीं सकता । आचार्य जिनभद्रगणी ने ऐसे पुरुष को निर्दय, निरनुकंप कहकर पुकारा है जो उ परकंपतं दट्ठूण न कंपए निरकं । अहिंसा का मूल - करुणा यह अनुकम्पा सहृदय की भूख-प्यास मिटाने तक ही सीमित नहीं रहती । अहिंसादि कार्यों और प्रवृत्ति के मूल में भी यही करुणा होती है । कबूतर की रक्षा करने वाले राजा मेघरथ के मन में करुणा फूटी, तभी अपनी जान की बाजी लगाकर अपने तन का मांस काटते-काटते वे स्वयं ही तराजू में बैठ गये । श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी यही कहा है कषायनी उपशान्तता, मात्र मोक्ष अभिलाष । भवे खेद प्राणी दया, तदा आत्मार्थ निवास ॥ अतएव आत्मार्थी बन्धु मन में प्राणिमात्र के प्रति प्रेमभाव होता है। अनुकम्पा तो मानवता का लक्षण है । मानवता में अनुकम्पा की नियमा और सम्यग्दर्शन की भजना होती है, किन्तु सम्यग्दर्शी में मानवता की नियमा होती है। अनुकम्पा - गुण से अभिप्रेरित व्यक्ति के मन में सत्त्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ यानी सभी जीवों के प्रति मैत्री, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवों के प्रति करुणा तथा विरोधी के प्रति माध्यस्थ भावना होनी चाहिए । अनुकम्पा - आंतरिकवृत्ति I अनुकम्पा या करुणा आंतरिकवृत्ति है । सेवा इसका बाह्य रूप है । घृत से भरे घट के बाहर चिकनाहट की तरह करुणाशील प्राणी का व्यवहार, “सर्वे भवन्तु सुखिनः " की भावना से ओत-प्रोत रहता है । श्रीकृष्ण तीन खण्ड के स्वामी थे, लेकिन हाथी के होदे पर भगवान् के दर्शन करने जाते समय ईंट उठाते हुए वृद्ध व्यक्ति पर उनकी नजर पड़ी। वे अपने को रोक नहीं सके और ईंट उठाकर वृद्ध के घर में रख दी और देखते ही देखते सब कर्मचारियों द्वारा सारी ईटें वृद्ध के घर में रख दी गई। हालांकि यह काम वे कर्मचारियों को आदेश देकर भी करवा सकते थे, लेकिन अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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