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________________ २० जिनवाणी-विशेषाङ्क होती है और कभी-कभी उसमें असफलता छिपी रहती है, परन्तु सम्यक्त्व रूप सहायक के सहयोग से मिलने वाली सफलता चिरस्थायी होती है, और उसके उदर में असफलता नहीं होती। संसार में, विषय-कषाय के अधीन होकर जीव नाना प्रकार के पदार्थों की कामना करते हैं। मनुष्य जिनकी कामना करते हैं, वे पदार्थ इष्ट कहलाते हैं और उनके लाभ को वे परम लाभ समझते है। किन्तु उन प्राप्त हुए पदार्थों की वास्तविकता पर विचार किया जाय तो पता चलेगा कि उन पदार्थों से आत्मा का किचित् भी कल्याण नहीं होता। यही नहीं, वान व पदार्थ कभी-कभी तो आत्मा का घोर अनिष्ट साधन करने वाले होते हैं। ऐस! स्थिति में सहज हो समझा जा सकता है कि सम्यक्त्व के लाभ से बढ़कर संसार में और कोई लाभ नहीं है। सम्यक्त्व उत्पन्न होते ही वह तीव्रतम लोभ और आसक्ति का अन्त कर देता है और फिर धीरे-धीरे आत्मा को उस उच्चतम भूमिका पर प्रतिष्ठित कर देता है कि जहां किसी भी सांसारिक पदार्थ के लाभ की आकांक्षा ही नहीं रहती, आवश्यकता ही नहीं रहती। सम्यक्त्व मोक्षमार्ग का प्रथम साधन कहा गया है। जब तक आत्मा को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती, तब तक उसका समस्त आचरण, समस्त क्रियाकाण्ड और अनुष्ठान नगण्य है : आत्म-कल्याण की दृष्टि से उसका कोई मूल्य नहीं है। कहा है ध्यान दुःखनिधानमेव तपसः सन्तापमानं फलम्। स्वाध्यायाऽपि हि वन्ध्य एव कुधियां तेऽभिग्रहाः कुग्रहाः ।। अश्लाघ्या खलु दानशीलतुलना तीर्थादियात्रा वृथा, सम्यक्त्वेन विहीनमन्यदपि यत्तत्सर्वमन्तर्गडु।। सम्यक्त्व के अभाव में जो भी क्रिया की जाती है, वह आत्म-कल्याण की दृष्टि से व्यर्थ ही होती है। तब ध्यान दुःख का निधान होता है, तप केवल संताप का जनक होता है, मिथ्यादष्टि का स्वाध्याय निरर्थक है. उसके अभिग्रह मिथ्या आग्रह मात्र हैं। उसका दान, शील, तीर्थाटन आदि सभी कुछ नगण्य है, निष्फल है वह मोक्ष का कारण नहीं होता है : जिस सम्बवत्व की ऐसी माहमा है, उसकी प्रशंसा कहां तक की जाय? प्राचीन ग्रन्थकारों ने उत्तम से उत्तम शब्दों में सम्यक्त्व की महिमा गाई है। यहाँ तक कहा गया है नरत्वेऽपि पशूयन्ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्त, सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ।। __जिसका अन्तःकरण मिथ्यात्व से ग्रस्त है, वह मनुष्य होकर भी पशु के समान है और जिसकी चेतना सम्यक्त्व से निर्मल है. वह पशु होकर भी मनुष्य के समान है। ___ मनुष्य और पशु में विवेक ही प्रधान विभाजक रेखा है और सच्चा विवेक सम्यक्त्व के उत्पन्न होने पर ही आता है। वास्तव में सम्यग्दर्शन एक अपूर्व और अलौकिक ज्योति है। वह दिव्य ज्योति जब अन्तर में जगमगाने लगती है, तो अनादिकाल से आत्मा पर छाया हुआ अंधकार नष्ट हो जाता है ! उस दिव्य ज्योति के प्राप्त होने पर आत्मा अपूर्व आनन्द का अनुभव करने लगता है। उस आनन्द को न शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है और न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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