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________________ सम्यक्त्व का महत्त्व xx आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. सम्यक्त्व की महिमा आगमों में तो वर्णित है ही, किन्तु आगमपोषक आगमेतर साहित्य में भी सम्यक्त्व का महत्त्व प्रतिपादित है। स्व. आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. इस शती के क्रान्तिकारी सन्त हुए हैं। उनकी दृष्टि में सम्यक्त्व पर यहां संक्षिप्त लेख संगृहीत है । - सम्पादक सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं, सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबन्धोर्न परो हि बन्धुः, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः ।। जैन शास्त्रों में तीन रत्न प्रसिद्ध हैं, उन्हें 'रत्नत्रय' भी कहते हैं । सम्यक्त्व - रत्न उन तीनों में प्रधान है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीन रत्न हैं । पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन की मौजूदगी में ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्ता आती है । जहाँ सम्यग्दर्शन नहीं वहाँ सम्यग्ज्ञान भी नहीं और सम्यक्चारित्र भी नहीं । सम्यग्दर्शनहीन ज्ञान और चारित्र मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन न हो तो ज्ञान और चारित्र आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकते। उनसे भवभ्रमण का अन्त नहीं हो सकता। यही नहीं, वे भवभ्रमण के ही कारण होते हैं। कहा है श्लाघ्यं हि चरणज्ञानवियुक्तमपि दर्शनम् । न पुनर्ज्ञानचारित्रे, मिध्यात्वविषदूषिते ।। सम्यग्दर्शन कदाचित् विशिष्ट ज्ञान और चारित्र से रहित हो, तब भी वह प्रशंसनीय है। उससे संसार परीत हो जाता है । परन्तु मिथ्यात्व के विष से विषैले विपुल ज्ञान और चारित्र का होना प्रशंसनीय नहीं है । सम्यक्त्व से बढ़कर आत्मा का अन्य कोई मित्र नहीं है । मित्र का काम अहितमार्ग से हटाकर मनुष्य को हितमार्ग में लगाना है । इस दृष्टि से सम्यक्त्व ही सबसे बड़ा मित्र है । जब आत्मा को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, तब उसकी दृष्टि निर्मल हो जाती है । उसे हित-अहित का विवेक हो जाता है। जब तक जीव मिथ्यात्व की दशा में रहता हैं, तब तक तो वह हित को अहित और अहित को हित समझता रहता है और उसी के अनुसार विपरीत प्रवृत्ति भी करता रहता है, किन्तु सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही दृष्टि का विभ्रम हट जाता है और आत्मा को सत्य तत्त्व की उपलब्धि होने लगती है । वह हेय - उपादेय को समीचीन रूप में समझने लगता है। इस प्रकार हितमार्ग में प्रवृत्ति कराने के कारण और अहितमार्ग से बचाने के कारण सम्यक्त्व परममित्र है ! सम्बन्ध है। पार्थ है-सदायक र आमा अपने मे प्रवृति करने के लिए उग्र होता है तो सम्यक्त्व ही सर्वप्रथम उसका सहायक होता है । अन्य सहायकों की सहायता से जो सफलता मिलती है, वह क्षणिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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