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जिनवाणी-विशेषाङ्क
से मंदता होने पर समभाव एवं सहिष्णुता का होना शक्य है। किन्तु वास्तव में इन जीवों में कषाय की अधिक मंदता नहीं होती है।
एक शंका यह उठती है कि श्रमणदीक्षा तो सम्यक्त्व के बाद ही होती है, फिर मिथ्यात्वी जीव प्रव्रज्या या श्रमणदीक्षा कैसे अंगीकार करते हैं? इसके उत्तर में कहा जाता है कि मिथ्यात्वी जीव भी देवों, राजा-महाराजाओं एवं तपस्या का लौकिक प्रभाव देखकर दीक्षा अंगीकार कर लेते हैं। पूजातिशय एवं दानादि के प्रभाव से भी दीक्षा का भाव आ जाता है। इसलिए दीक्षा अंगीकार करना भवी मिथ्यात्वी एवं अभवी मिथ्यात्वी के लिए भी संभव है। अभवी को तो सम्यक्त्व की प्राप्ति कभी भी नहीं होती है, किन्तु भवी मिथ्यात्वी को साधुत्व अंगीकार कर लेने के पश्चात् सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव है !
समभाव की उत्कम्तम अवस्था वीतराग भाव है और न्यूनतम अवस्था पहले गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाता है जिसे चत:स्थानिक से विस्थानिक एवं द्विस्थानिक अनन्तानुबन्धा काय के रूप में पहले स्पष्ट किया जा चुका है। कषाय की कमी को ही समभाव कहते हैं तथा गुणस्थान क्रम सारा ही कषाय की कमी एवं समभाव की वृद्धि के रूप में माना गया है।
का ही पर्याय वीतराग भाव की प्राप्ति के लिए समभाव का अभ्यास किया जाता है। अनेक बन्ध-भगिनी सम्यक्त्व प्राप्ति होने के पूर्व 'सामायिक' करते हैं। यह सामायिक समभाव के अभ्यास हेतु की जाती है। उस अभ्यास को भी समभाव ही कहा जाएगा। यह अभ्यास रूप समभाव स्थूल होता है, किन्तु है तो समभाव ही। समत्वभाव एक प्रकार से मानवोचित गुण भी माना गया है, यथा-समस्त प्राणियों के प्रति समत्वभाव होना अर्थात् समानता का भाव होना। अनेक भाई मिलेंगे, जिनको कहा जाता है कि भाई अमक जीव को मत मारना, तो वे कहते हैं-'महाराज : मैं उस जीव को कैसे मारूगा, जैसा मेरा जीव है वैसे ही उसका जीव है।' ऐसी समानता रूप समता की बात मिथ्यात्वी में भी हो सकती है।
सम्यक्त्व होने पर जीव संसार के भोग-पदार्थों को तुच्छ समझता है। वह विषय-भोगों से उदासीन एवं विरक्त हो जाता है। संसार के कार्यों को करते हुए उसका ध्यान आत्मा की ओर ही रहता है। जैसे भरतचक्रवर्ती को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया तो उनका ध्यान आत्म-तत्व का ओर ही केन्द्रित रहा।
जिस प्रकार शुभयोग को अशुभ से निवृत्ति के कारण संवर कहा जाता है, किन्तु पूर्ण संवर तो अयोगी अवस्था में ही होता है। उसी प्रकार पूर्ण समत्व तो वीतराग अवस्था में होता है. किन्तु सराग अवस्था में भी रागादि की अपेक्षाकृत न्यूनता के कारण अथवा शुभलेश्याओं के कारण समत्व भाव कहा जाता है। यह समत्वभाव मिथ्यादृष्टियों में भी सम्भव है।
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