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________________ सम्यग्दर्शन और समभाव Xxx उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्र जी म.सा. उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्र जी म.सा. एक प्रज्ञाशील संत हैं। आपसे सम्यग्दर्शन और समभाव विषय पर आगोलाई में चर्चा हुई थी, जिसके सारांश रूप में यह लेख प्रस्तुत है | सम्पादक सम्यग्दर्शन और समभाव दोनों भिन्न हैं । समभाव के मुख्यतः दो रूप दिखायी देते हैं - (१) कषाय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्राप्त समभाव । यह समभाव सम्यक्त्व की प्राप्ति से लेकर वीतराग अवस्था तक पाया जाता है । (२) समभाव का दूसरा वह रूप हैं जो मिथ्यात्वी में भी पाया जाता है । अभवी मिथ्यात्वी भी द्रव्य सामायिक चारित्र की आराधना करता हुआ नवग्रैवेयक देवों तक उत्पन्न हो सकता है। कषाय के क्षयादि से प्रकट होने वाला समभाव सम्यक्त्वी को होता है, इसे मानने में कोई विवाद ही नहीं है, किन्तु समभाव का प्रयोग जब अभ्यासदशा में मिथ्यावियों के लिए भी किया जाता है, तो यह कुछ अटपटा प्रतीत होता है । किन्तु मिथ्यात्वियों में समभाव सहिष्णुता के रूप में पाया जाता है । मिथ्यात्वी जीव भी सहिष्णु होते हैं जिसे लेश्याशुद्धि कह सकते हैं। पेड़ पौधे जैसे जीवों में तो यह सहिष्णुता प्रत्यक्ष गोचर होती ही है, किन्तु आतापना लेने वाले, धूनी रमाने वाले अग्नितप करने वाले मिथ्यात्वी सन्यासियों में भी समभाव युक्त सहिष्णुता दिखाई देती है। अभवी जीवों में भी इतनी सहिष्णुता बतायी गई है कि उन्हें तपती भट्टी में झोंक दिया जाय तब भी व उफ तक नही करते । सहिष्णु होना कोई सम्यक्त्व का द्योतक नहीं होता। दुकानदार अपने धंधे के लिए किसान अपनी फसल के लिए सहिष्णुता के धनी होते हैं। इससे उनमें तीव्र क्रोधादि की प्रतिक्रिया न करने रूप समभावगर्भित सहिष्णुता प्रतीत होती हैं । बाहर में इनमें इतनी सहिष्णुता रहती है कि ये अपनी प्रतिक्रिया को झलकने तक नहीं देते। प्रश्न होता है कि मिथ्यात्वी जीवों में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय रहता है फिर उनमे समभाव कैसे संभव है ? प्रश्न तो उपयुक्त है किन्तु प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के अतिरिक्त अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन प्रकृतियों का उदय रहता है । जब क्रोध का उदय होता है तो अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन चतुष्क का उदय होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबंधी के साथ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं सज्वलन मान का तथा इसी प्रकार मायाचतुष्क एवं लोभचतुष्क का उदय होता है । उनमें भी तीव्रता - मंदता चलती रहती है । अनन्तानुबन्धी के तीव्रतम रूप चतुनिक से जब वाहन तक जीव आता है तो उसमें लेश्या कृष्ण से शुक्ल तक हो जाया करता है। इसका अर्थ है कि कषाय की थोड़ी सी मदता से भी लेश्या की शुद्धि होती है, जिसे व्यवहार में सहिष्णुता व समभाव के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार कषायो में आपेक्षिक रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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