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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन उपमा के द्वारा ही। उस आनन्द की आंशिक तुलना किसी जन्मान्ध को सहसा नेत्र प्राप्त हो जाने पर होने वाले आनन्द के साथ ही की जा सकती है। जो मनुष्य जन्म-काल से ही अंधा है और जिसने संसार के किसी पदार्थ को अपने नेत्रों से नहीं देखा है, उसे पुण्ययोग से कदाचित् दिखाई देने लगे तो कितना आनन्द प्राप्त होगा? हम तो उस आनन्द की कल्पनामात्र कर सकते हैं। पर सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर उससे भी अधिक आनन्द की अनुभूति होती है। सम्यग्दृष्टि, आत्मा में समता के अद्भुत रस का संचार कर देती है. तीव्रतम राग-द्वेष के संताप को शान्त कर देती है. और इस कारण आत्मा अप्राप्तपूर्व-शान्ति के निर्मल सरोवर में अवगाहन करने लगता है। सम्यग्दृष्टि के विषय में शास्त्र में कहा है सम्मत्तदंसी न करेइ पावं ।-आचारांगसूत्र १.३.२ अर्थात् सम्यग्दृष्टि पाप नहीं करता है। चौथे गुणस्थान से लगाकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीव सम्यग्दृष्टि माने जाते है और जो सम्यग्दृष्टि बन जाता है वह नवीन पाप नहीं करता है। इस प्रकार अनुत्तर धर्म की श्रद्धा से नये पाप कर्मों का बंध रुक जाता है। अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा होने से अनन्तानुबंधो क्रोध, मान, माया तथा लोभ नहीं रह पाते और जब अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि नहीं रह पाते तो तत्कारणक (उनके कारण से बन्धने वाले) पापकर्म नहीं बंधते। इसका कारण यह है कि कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता। इस कथन के अनुसार मिथ्यात्व को हटाने की इच्छा रखने वाले को पहले अनन्तानुबन्धी कषाय हटाना चाहिये। जिसमें वह कषाय रहेगा. उसमें मिथ्यात्व भी रहेगा। अनंतानुबन्धी कषाय जाय तो मिथ्यात्व भी नहीं रह सकेगा ! जब मिथ्यात्व नहीं रह जाता तभी 'दर्शन' को आराधना होता है : जब तक मिथ्यात्व है तब तक दर्शन की भी आराधना नहीं हो सकती । रोगी मनुष्य को चाहे जितना उत्कृष्ट भोजन दिया जाय, वह रोग के कारण शरीर को पर्याप्त लाभ नहीं पहुंचा सकता, बल्कि वह रोगी के लिये अपथ्य होने से अहितकर सिद्ध होता है। अतएव भोजन को पथ्य और हितकर बनाने के लिये सर्वप्रथम शरीर में से रोग निकालने की आवश्यकता रहती है। इसी प्रकार जब तक आत्मा में मिथ्यात्व रूपी रोग रहता है, तब तक आत्मा दर्शन की आराधना नहीं कर सकता। जब मिथ्यात्व का कारण मिट जाएगा और कारण मिटने से मिथ्यात्व मिट जायगा तभी दर्शन की आराधना भी हो सकेगी। मिथ्यात्व मिटाकर दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करना अपने ही हाथ की बात है। कषाय को दूर करने से मिथ्यात्व दूर होता है और दर्शन की आराधना होती है। विशुद्ध दर्शन की आराधना करने वाले को कोई धर्मश्रद्धा से विचलित नहीं कर सकता, इतना ही नहीं, किन्तु जैसे अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि अधिक तीव्र बनती है उसी प्रकार धर्मश्रद्धा से विचलित करने का ज्यों-ज्यों प्रयत्न किया जायगा त्यों-त्यों धर्मश्रद्धा अधिक दृढ़ और तेजपूर्ण हाती जायेगी। धर्मश्रद्धा में किस प्रकार दृढ़ रहना चाहिये, इस विषयमें कामदेव श्रावक का उदाहरण दिया जाता है। धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखने से और दर्शन की विशुद्ध आराधना करने से आत्मा उसी भव में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। -जवाहरकिरणावली, भाग १ से साभार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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