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________________ ३५२ जिनवाणी-विशेषाङ्क विचारणा में अन्ध श्रद्धा को धर्मनिष्ठा का प्रथम सूत्र माना गया है। सभी ज्ञात और वर्तमान में प्रचलित धर्म व्यवस्थाओं में अन्धश्रद्धा को इस सीमा तक पोषित किया गया है कि यदि बुद्धि और तर्क से वर्तमान परिस्थितियों तथा सतत प्रकाश में आ रही ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों के सापेक्ष साधुवर्ग द्वारा पोषित असंगत धारणाओं की समीक्षा की जाती है तो समीक्षक को अवर्णवाद का दोषी, नास्तिक, काफिर और Blasphemous कहकर भर्त्सना की जाती है। उसे बहिष्कृत और प्रताड़ित करने की चेष्टा की जाती है और आज भी जेल में सड़ा देने या उसकी हत्या करने के प्रयत्न भी किये जाते हैं। गेलिलिओ को यह सिद्ध करने पर कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, पोप के आदेश से जीवित जला दिया गया था। सलमान रशदी अपनी जान की खैर मना रहा है और तस्लीमा नसरीन अपने मुल्क से भागी फिर रही है। कोई साधु यदि कितना ही भ्रष्ट और दुराचारी हो, धर्म के रखवाले होने का दम्भ करने वाले नेता, ऐसे साधु को कानून के हवाले करने के बजाय उसकी हिमायत करते हैं और सताये गये व्यक्ति को ही और अधिक सताने को धर्म-कार्य समझते हैं। ___ 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना' का बिल्कुल उल्टा व्यवहार में देखने में आता है। जो स्थिति है उसमें विभिन्न धर्मों के साधु, मुल्ला और पादरी ही धार्मिक विद्वेष का विष समाज में फैलाते हैं ताकि अनुयायियों पर उनकी पकड़ और मजबूत हो जाये तथा उनका सत्ताबल, धनबल और जनबल निरन्तर बढ़ता रहे। इसका अपवाद सर्वाधिक प्रगतिशील माना जाने वाला संयुक्त राज्य अमरीका भी नहीं है। .. __आज का चिन्तनशील और मननशील व्यक्ति धर्मान्धता के कारण उत्पन्न आंतकवादी एवं संवेदनाशून्य प्रवृत्तियों की जनक बौद्धिक कूप-मण्डूकता को स्वीकार नहीं कर पाता। वह निरन्तर प्रसार पा रहे ज्ञान के सापेक्ष पिछली मान्यताओं का विश्लेषण और समीक्षा करना चाहता है। उसका मानना है कि जब कभी किसी मनीषी ने जो सोचा और कहा वह उसके समकालीन बौद्धिक विकासजन्य ज्ञान तथा सामाजिक परिस्थितियों की अपेक्षा से तत्कालीन पारिवेशिक समस्याओं के समाधान के रूप में था। उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो अन्तिम सत्य हो, और जो कुछ भी है उसका सतत परीक्षण तथा परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन एवं परिमार्जन अपेक्षित _ 'सम्यग्दर्शन' का शाब्दिक अर्थ है 'सम्यक् रूप से देखना'। यह अर्थ सूचित करता है कि मनुष्य में प्रत्येक विषय और वस्तु को सम्यक् रूप से देखने का विवेक और बौद्धिक क्षमता जागृत होनी चाहिए। यदि हम शब्द के शास्त्रीय भाष्यों से हटकर उसकी मूल भावना को ग्रहण करें तो यह आधुनिक वैज्ञानिक सोच के अनुकूल होगा और हमें धर्म के वास्तविक उद्देश्य को समझने और हृदयंगम करने में सहायक होगा। तब सम्प्रदाय की दीवारें अपने आप ढह जायेंगी और एक समन्वयशील मानसिकता प्रस्फुटित होगी जो मानव-समाज के अभ्युदय के लिए कल्याणकारी होगी। -ज्योतिकुंज, चारबाग, लखनऊ (उ.प्र.) २२६००४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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