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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार ३३९ (१) सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा शुद्ध व समझ सही होना - सम्यग्दृष्टि जीव जो वस्तु जैसी है, वह उसको उसी रूप में देखता और मानता है । तत्त्वों के संबंध में सम्यक्दर्शनी का चिंतन तथा हार्दिक अभिव्यक्ति होती है अरिहंतो मह-देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं इअ सम्मत्तं मए गहिये ।।' I अर्थात् केवली भगवंतों द्वारा निरूपित तत्त्वों पर उसकी पूर्ण श्रद्धा और मान्यता होती है। उसकी दृष्टि में जो कर्म रूप शत्रु - विजेता हैं, अठारह दोष रहित, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी, वीतराग अरिहंत भगवंत हैं वें ही देव हैं। कनक - कामिनी के त्यागी, पंच महाव्रत के पालक, पांच समिति और तीन गुप्ति के धारक सर्व साधु-साध्वीजी गुरु और सर्वज्ञभाषित दयामय- मोक्षमार्ग की ओर गति कराने वाला तत्त्व ही धर्म है जीवादि नव तत्त्वों में भी जो चेतना - युक्त एवं उपयोग लक्षण वाला है उसे जीव, जो अचेतन अथवा जड़ है उसे अजीव, सुख देने वाले तत्त्व को पुण्य, दुःख देने वाले को पाप, जिनके द्वारा शुभाशुभ कर्मों का आगमन हो उसे आश्रव, आश्रवों का निरोध करने वाले को संवर, कर्मों को आत्मा से पृथक् कराने वाले तत्त्व को निर्जरा, आत्मा एवं कर्मों का सम्बन्ध कराने वाले को बंध और सम्पूर्ण कर्मों के क्षय को प्राप्त होने वाले तत्त्व को ही मोक्ष मानता है । इसी के साथ उसकी दृढ़ मान्यता होती है - अरिहंत देव, निर्बंथ गुरु, संवर निर्जरा धर्म । केवली भाषित शास्त्र, यही जैन मत मर्म ॥ इस प्रकार उसकी श्रद्धा व मान्यता सही होने से वह पाप- बंधन नहीं करता और पाप-मुक्त रहता है, जबकि मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा, मान्यता एवं समझ आदि विपरीत होने के कारण वह पापों का बंधन करता है 1 (२) सम्यग्दृष्टि का भेदविज्ञानी होना - सम्यग्दृष्टि जीव जड़ और चेतन का भेद अथवा स्व और पर में जो भेद है उसे भली प्रकार समझने वाला होता है। अतः 'स्व' अर्थात् आत्मा को महत्त्व देता हुआ 'पर' अर्थात् पुद्गलों के पिंडरूप नश्वर शरीर के प्रति वह उदासीन भाव रखता । सम्यक्त्व प्राणी बहिर्मुखी नहीं अपितु अंतर्मुखी होता है । वह सांसारिक भौतिक पदार्थों और शरीरादि को अपना नहीं मानकर सदैव आत्माभिमुख बना रहता है । उसका चिंतन होता है इमं शरीरं अणिच्वं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ।। अतः पर से दृष्टि हटाकर स्व को लक्ष्य बनाता है, और चिंतन करता है - एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा || ज्ञानीजनों ने संसार में धन, शरीर, परिवार आदि पर आसक्ति या ममत्व-भाव को अनर्थों का कारण मानते हुए उनके सेवन को कर्म-बन्ध का मूल बताया है । किन्तु सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञानी होने के कारण उनसे घिरा हुआ रहने पर भी अनासक्त भाव को ग्रहण किये हुए जल में जलज सदृश भरत चक्रवर्ती के समान निर्लिप्त भाव से रहता हुआ पाप- बंधन से मुक्त रहता है। जबकि मिथ्यात्वी अज्ञानतावश इन्हीं को सब कुछ जानने की भूल कर बैठता है और इन्हीं में गृद्ध व रचा-पचा रहने के कारण गाढ़े पाप-कर्मों को बांधता रहता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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