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________________ सम्यक्त्वी पाप क्यों नहीं करता ? र सोभागमल जैन आचारांगसूत्र १.३.२ 'सम्मत्तदंसी ण करेति पावं' (सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता है) वाक्य की सार्थकता की पुष्टि लेखक ने ११ हेतुओं से की है। लेखक का चिन्तन आगम-प्रमाण पर आधारित है तथा सुग्राह्य है। यह अवश्य ध्यातव्य है कि सम्यक्त्वी मनुष्य दर्शनसप्तक सम्बन्धी पाप नहीं करता, शेष पाप का बंध उसके न्यूनाधिक रूप में तब तक होता रहता है, जब तक कि वह तत्सम्बद्ध हेतओं का पूर्णत: त्याग नहीं कर देता। तथापि लेखक के द्वारा प्रदत्त बिन्दु आगम-वचन की पुष्टि में महती भूमिका निभाते हैं।-सम्पादक ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुआ सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं । मोक्षपाहुड,८९ अर्थात वे मनुष्य धन्य और सुकृतार्थ हैं और वे ही पंडित और शूरवीर हैं जिनके पास (मुक्ति) सिद्धि प्रदान कराने वाला सम्यक्त्व है और उस प्राप्त हुए सम्यक्त्व को वे स्वप्न में भी कभी मलिन नहीं होने देते हैं। प्रतिपाद्य विषय ‘सम्मत्तदंसी ण करेति पावं' के विवेचन हेतु सर्वप्रथम सम्यग्दृष्टि की पहिचान करना प्राथमिक आवश्यकता है। जिसने मिथ्यादर्शन को त्याग कर सम्यग्दर्शन को जीवन में अपनाया हो, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व का महत्त्व वर्णनातीत कहा गया है। वह भव-भ्रमण को समाप्त करने का अमोघ अस्त्र एवं धर्मबीज है। मिथ्यात्व जहां जीवन में अंधकार रूप होता है तो वहीं सम्यक्त्व जीवन में प्रकाश रूप होता है। ___सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का ज्ञान एवं चारित्र भी सम्यक् होता है। अतः उसे हिताहित का भान होता है तथा कौनसा कार्य करणीय है और कौनसा अकरणीय, किस प्रकार के कार्यों के करने से पापों का बंधन होता है और किनसे पापों की निर्जरा कर सिद्धि को मिलाया जा सकता है, इसका उसे बोध होता है, जिससे वह अपनी आत्मा को निर्मल बना सकता है। उसके समक्ष मोक्ष का मार्ग स्पष्ट रहता है। अतः सम्यग्दृष्टि जीव पापी नहीं, धर्मी होता है इसी कारण से सम्यग्दृष्टि के लिए आप्त महापुरुषों का उक्त कथन समीचीन एवं यथार्थ परक है। सम्यग्दृष्टि जीव का जीवन रत्न-त्रय रूप धर्म-मय होने से वह सदैव धर्म कार्यों एवं धर्माराधन में प्रवृत्ति-रत रहता है तथा पापकारी प्रवृत्तियों से विरत एवं निवृत्त होता है। पाप को पाप ही समझने एवं उसका फल अशुभ एवं अत्यंत घातक होना मानने के कारण वह पाप नहीं करता है। अतः सम्यग्दृष्टि जीव के लिए आप्त पुरुषों का यह कथन 'सम्मत्तदंसी ण करेति पावं' अर्थात् 'सम्यग्दृष्टि पाप नहीं करता है,' पूर्ण सार्थकता लिये हुए है। इसकी पुष्टि हेतु अग्रांकित तथ्यों द्वारा भी प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है* व्याख्याता, हिन्दी,राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, अलीगढ़-टोंक (राज) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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