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________________ ૨૭. सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार चिन्तन करने वाला पाप कर्म से उपरत हो जाता है। तीसरा मननीय वाक्य है-'तम्हा तिविज्जो परमंपि णच्चा'। तीनों विद्याओं का ज्ञाता परम को जाने। परम का अर्थ है-जीव का पारिणामिक भाव अथवा मोक्ष । जब तक जीव परम सद्भाव की भावना नहीं करता तब तक दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। इसके लिए त्रिविध ज्ञान अपेक्षित है १. पूर्व जन्म का ज्ञान। २. जन्म-मरण का ज्ञान । ३. आस्रव-क्षय का ज्ञान । इस त्रिविध ज्ञान के पश्चात् ही 'सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता' यह वाक्य सार्थक होता है। ज्ञानी व्यक्ति ही आचार-शद्धि कर सकता है। 'सव्वे पाणा ण हंतव्वा' इस वाक्यांश में हिंसा नहीं करनी चाहिए इस तथ्य की प्रधानता नहीं है। परन्तु किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए यह तथ्य वास्तविक है, सत्य है। यही सम्यग्दर्शन है। सार की भाषा में कहा जा सकता है कि सम्यक् आचार सम्यक् दर्शन पूर्वक ही हो सकता है। जानने और देखने के बाद ही आचरण का क्रम आता है। अतः ज्ञाता-द्रष्टाभाव से युक्त राग-द्वेष रहित अवस्था को प्राप्त सम्यक दृष्टि न पाप करता है, न करवाता है और न ही उसकी अनुमोदना करता है। उसके पाप का कारण मिट चुका है। अतः कारण के बिना कार्य संभव नहीं। -जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) विचार-कण यदि बाहर की दृष्टि को मोड़कर तुम अन्दर की ओर देखने लगे तो उस दिन शान्ति और आनन्द का मार्ग तुम्हें उपलब्ध हो सकेगा। पुद्गल एवं पौदगलिक पदार्थों की ओर जितनी अधिक आसक्ति एवं रति होगी, उतनी ही आन्तरिक शक्ति में कमी होगी। आर्थिक दृष्टि से कोई व्यक्ति चाहे कितना ही सम्पन्न, इन्द्र या कुबेर के समान क्यों न । हो, किन्तु उसका आन्तरिक परिष्कार नहीं हुआ, तो उसका जीवन अधूरा ही रहेगा। और उसे वास्तविक सुख प्राप्त नहीं होगा। सम्यक्त्व पूर्वक की गई क्रिया से मन में पवित्रता आती है और मन में रहे हुए संकल्प-विकल्प तथा आधि-व्याधि-उपाधि मिटती है। • सम्यग्दर्शन न तो गुरु महाराज के पास से आने वाली चीज है और न भक्ति के द्वारा ली जाने वाली चीज है। सम्यग्दर्शन तो हमारे भीतर है। वह तो भीतर से आवेगा। वह भीतर से जगने वाला है। गुरु तो पर्दा हटाने का काम करते हैं, आवरण हटाने का काम करते हैं, आवरण दूर होने से मिथ्यात्व का रोग मिटने लगता है। जब अजेय का आक्रमण होता है और शरीर को त्याग कर जाने की तैयारी होती है तब जवाहरात के पहाड़ भी आड़े नहीं आते। मौत को हीरा-मोतियों की घूस देकर, प्राणों की रक्षा नहीं की जा सकती। -आचार्य हस्ती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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