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________________ ३३४ जिनवाणी- विशेषाङ्क मर्चेन्ट की दुकान है । तीन सीढ़ियां चढ़कर दुकान का द्वार खुलता है । मैं दो सीढियां चढ़ ही पाया था कि मेरे दोनों पैर यकायक रुक गए। दुकान पर कुछेक युवतियां दर्पण खरीदने का उपक्रम कर रही थीं। मेरे शिष्टाचार ने बाध्य किया उन्हें खरीद लेने दो और मैं अपने इसी निर्णय के अधीन होकर अधर में प्रतीक्षा करने लगा। वे सब नया दर्पण देखती और उसे रखकर अन्य की अपेक्षा करतीं । अच्छा दिखलाइए वे दुकानदार से आग्रह करतीं। उन्होंने अनेक दर्पण देखे थे, और वे किसी दर्पण से सन्तुष्ट नहीं हुई थी । अन्त में एक ने कहा- बेल्जियम का दिखलाइए । बेल्जियम का दर्पण दिखलाया गया । उसे देखकर भी वे सन्तुष्ट नहीं हुईं। उन्हें देखकर मेरे प्रतीक्षित अन्तर से अनायास ही निकल गया— जब शक्ल ही ऐसी है तब बेचारा दर्पण क्या करेगा? यह सुनकर वे एक मिनट में एक-एक करके फीकी हंसी हंसते हुए दुकान से नीचे उतर गयी। मुझे कदाचित् यह कहना नहीं चाहिए था, मेरे मन ने तब यह सोचा था । 1 दर्पण में जब चेहरे पर कोई दाग दिखता है तब लोग प्रायः दर्पण को दोष देते हैं । दर्पण को साफ करते हैं । दर्पण को साफ करने से भला चेहरे का दाग़ कैसे मिट सकता है। चेहरे को साफ करने से ही दर्पण में प्रतिबिम्बित दाग मिट सकता है इसी प्रकार बाहर प्रतिबिम्बित दोष तभी शुद्ध होंगे जब व्यक्ति अपनी अन्तर्दृष्टि शुद्ध और स्वच्छ बनायेगा । अन्तर्दर्शन शुद्ध होने पर संसार रूपी सागर का खारापन व्यर्थ हो उठता है । जब तक व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि शुभ और शुद्ध नहीं होगी, तब तक जीवन-दर्पण में अनेक दोष प्रतिबिम्बित होते रहेंगे । जीवन का यही अन्तर्दर्शन वस्तुतः जैन धर्म की भाषा में सम्यक् दर्शन कहलाता है । 1 जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । अर्थात् जैसा विचार वैसा संसार प्रतीत होता है । अन्तर्दर्शन में निहित दृष्टिकोण या विचार का प्रतिबिम्ब ही बाहर झलकता है । अन्तरदर्शन में यदि विशुद्ध विश्वमैत्री, निःस्वार्थ बन्धुत्व है तो बाह्य दर्शन में किसी के प्रति कभी कोई द्वेष- द्वन्द्व नहीं होगा । अन्तरदर्शन सदा आत्मलक्ष्यी होता है । जब दर्शन आत्मलक्ष्यी होता है, तब अनेक अपकृत स्वयमेव नश - विनश जाते हैं। पर - पदार्थ के प्रति जब हमारी दृष्टि सम्यक् होती है तभी वस्तु के प्रति मोह और स्वामित्व का भाव प्रायः कम हो जाता है 1 समस्यायें मिथ्यात्व की उपज होती हैं। सभी समस्याओं के समाधान सम्यक्त्वमुखी होते हैं । अन्तरदर्शन से सम्यक्त्व के संस्कार प्रायः जाग्रत होते हैं । इन्हीं संस्कारों से सम्यक्दर्शन का जन्म होता है । इस प्रकार सम्यक् दर्शन वह है जिसमें प्राणी की समग्र पूर्व धारणायें, पूर्वाग्रह, अहंकार और तज्जन्य कदाचार प्रायः समाप्त हो जाते हैं और तब एक मात्र रह जाता है दर्शन, जिसमें श्रद्धा, समता के प्रति शक्ति और सामर्थ्य केन्द्रित हो जाते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only - मंगलकलश ३९४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ (उ.प्र.) फोन- २६४८६ www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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