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________________ समत्तदंसी ण करेति पावं समणी प्रतिभाप्रज्ञा 'समत्तदंसी ण करेति पावं (आचारांग १.३.२) का प्राय: अर्थ किया जाता है कि सम्यग्दर्शी पाप नहीं करता है, किन्तु समत्तदंसी के प्रस्तुत लेख में आचार्य शीलाङ्क द्वारा प्रतिपादित तीन अर्थ प्रकट हुए हैं-१. समत्वदर्शी २. सम्यक्त्वदर्शी और ३. समस्तदर्शी । 'समत्तदंसी' बिल्कुल भी पाप नहीं करता, ऐसा अर्थ करना उपयुक्त नहीं, सम्यक्त्वदर्शी के अनन्तानुबन्धी एवं मिथ्यात्व सम्बन्धी पाप नहीं होता।-सम्पादक सम्यक्त्व साधना की आधारभूमि है। अन्तरात्मा तक पहुंचने का दरवाजा है। इसके स्पर्श के बिना जीवन की सही दिशा का निर्धारण नहीं हो सकता। जैन दर्शन में सम्यक्त्व का सर्वाधिक माहात्म्य स्वीकार किया गया है। जैसे अंक के बिना केवल शून्य अर्थहीन होता है वैसे ही सम्यक्त्व के बिना तपस्या, सदाचरण आदि अर्थवान् नहीं होते । सम्यक्त्व और चेतना के विकास का अविनाभावी सम्बन्ध है। निश्चय नय की दृष्टि से आत्म-द्रव्य की प्रतीति को ही सम्यक् दर्शन कहा गया है। प्रयोजनभूत द्रव्य तो स्वकीय आत्मद्रव्य ही है। स्व का निश्चय होने से पर स्वतः ही छूट जाता है। यही वह स्थिति है जहाँ पर अवस्थित हो आगमकार उद्घोष करते है-'समत्तदंसी ण करेति पावं'। ___ 'समत्तदंसी' शब्द बहत महत्त्वपूर्ण है। आचारांग के टीकाकार शीलांकाचार्य ने संस्कृत में इसके लिए तीन शब्दों का प्रयोग किया है- समत्वदर्शिनः, सम्यक्त्वदर्शिनः और समस्तदर्शिनः। ये तीनों ही अर्थ सार्थकता युक्त हैं। प्राणीमात्र पर समत्व दृष्टि रखकर, उन्हें आत्मवत् जानने वाला समत्वदर्शी होता है। प्रत्येक घटना एवं विचारधारा के तह में पहुंच कर उसकी सच्चाई को यथावस्थित रूप से जानने वाला सम्यक्त्वदर्शी होता है। केवलज्ञान के महाप्रकाश में समस्त वस्तुओं की त्रैकालिक पर्यायों को जानने-देखने वाला समस्तदर्शी होता है। ये तीनों अर्थ टीकाकार ने क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से किये हों , ऐसा जान पड़ता है। सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता यह एक रहस्यपूर्ण सूत्र है । जो पाप के स्वरूप को देखता है, जानता है वह पाप नहीं कर सकता। जो उसके यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता-देखता, वही व्यक्ति पाप कर सकता है। जिस प्रकार साधारण पात्र में सिंहनी का दूध नहीं टिकता, उसी प्रकार कलुषित मनोभूमि में सम्यक्त्व रत्न नहीं रह सकता। जैसा कि कहा गया है जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः । जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ॥ __मैं धर्म को जानता हूँ फिर भी उसका आचरण नहीं करता। मैं अधर्म को जानता हूँ फिर भी उसका निवर्तन नहीं करता। यह असम्यक् स्थूल चित्त की अनुभूति है। सम्यक्दर्शन युक्त चित्त कभी भी असम्यक् आचरण नहीं कर सकता। किसी भी वस्तु, घटना, प्रवृत्ति, क्रिया, भावधारा या किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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