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________________ बाह्य दर्शन : अन्तर्दर्शन R डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। उत्पाद, व्यय और धौव्य प्रत्येक द्रव्य में अन्तर्निहित हैं । व्यय और उत्पादयुक्त होने पर भी द्रव्य सदा ध्रौव्यमय होते हैं। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामक षट् द्रव्यों में संसार के सभी द्रव्य समाहित हैं। षट् द्रव्यों के समूह को लोक कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर जीवन की एकरूपता लोक के रूप को स्वरूप प्रदान करती है। बाह्य दर्शन और अन्तर्दर्शन समझे बिना संसार को समझना और समझाना प्रायः सम्भव नहीं है। ज्ञान के बिना दर्शन कभी पूर्ण नहीं होता है और दर्शन से रहित कभी कोई ज्ञान प्राप्त होना सम्भव नहीं होता। अतः उपयोग की अपेक्षा से दर्शन और ज्ञान सदा अन्योन्याश्रित हैं। जीव द्रव्य का मूल लक्षण चेतना है। चेतना सदा ज्योतिर्मती होती है जिसके दिव्य प्रकाश से आत्मा का अपना कर्तव्य-अकर्तव्य, हेय-उपादेय का मार्ग मुखर हो उठता है। जब तक अन्तर ज्योति उजागर नहीं होती, तब तक बाह्य ज्योति का कोई महत्त्व नहीं। आँख बाह्यदर्शन का मुख्याधार है। अन्तर-दर्शन के लिए आत्म-ज्योति की आवश्यकता असंदिग्ध है। सूर्य, चन्द्र, दीपक, मणि तथा विद्युत आदि सभी प्राकृत प्रकाशक हैं, किन्तु इन सबका प्रकाश उसी के लिए उपयोगी होता है, जिसकी आँखों में ज्योति जाग्रत है। जिसकी आँखों में ज्योति नहीं, उसके लिए ये सभी प्रकाश-केन्द्र प्रायः व्यर्थ हैं। उसके लिए दिवा और दिवाकर भी अंधकार हैं। शास्त्र, ग्रंथ-आदेश आदि का प्रकाश उसी के लिए उपयोगी होता है जिसके अंतर में आत्मालोक का उदय है। यही आत्मालोक वस्तुतः सम्यक् दर्शन होता है। ज्ञान और दर्शन भिन्न-भिन्न स्वतंत्र शब्द हैं। बौद्धिक ज्ञान शब्दाश्रित होता है इससे अहंकार उत्पन्न होता है, किन्तु दर्शन शब्दाश्रित नहीं है। इससे अहं की उत्पत्ति नहीं, अपितु आस्था के स्वर फूटते हैं। अकेला ज्ञान और विज्ञान विश्व में द्वेष और द्वन्द्व उत्पन्न करता है जबकि दर्शन के साथ आत्मानुभूति द्वारा समुदाय और समाज में सौहार्द, समता और मैत्री का संचार होता है। ___साधारण प्राणी बाह्य आँखों से देखने को ही दर्शन मानते हैं। इतनी विशाल सृष्टि है बाह्य दर्शन की। उसको एक साथ ये बिचारी आँखें भला कैसे देख सकती हैं ? खुली आँख से प्रायः दृश्य दिखा करते हैं, जबकि बन्द आंख से दिखता है द्रष्टा । सृष्टि बाह्य दर्शन का विषय है जबकि स्रष्टा है अन्तर्दर्शन का विषय । द्रष्टा और स्रष्टा में श्रवण, मनन, निदिध्यासन, विचारणा, तर्क-वितर्क आदि का समन्वित रूप अन्तर्मुक्त है। यह एक प्रकार से अन्तर्दर्शन है। ___ इस विषय से सम्बन्धित मुझे एक जीवत वृत्त का स्मरण हुआ है। एक बार मुझे अलीगढ़ महानगर के फूल चौराहे पर कुछ खरीदने हेतु जाना हुआ। वहाँ एक जनरल * पी.एचड़ी.,विद्यावारिधि एवं डीलिट्, निदेशक जैन शोध अकादमी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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