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जिनवाणी-विशेषाङ्क विरोधी (आक्रमण के समय बचाव में) हिंसा का पूर्णतया त्याग नहीं कर सकते, किन्तु इनमें भी संकल्पी यानी जानबूझकर, असावधानी से हिंसा में प्रवृत्ति का त्याग कर सकते हैं। गृहस्थ के लिए भी करुणाभाव आवश्यक है। पशुओं का अंग-विच्छेद, क्षमता से अधिक भार डालना, भूखा-प्यासा रखना अहिंसावत के अतिचार हैं। जीव में जितनी अधिक इन्द्रियां होती हैं, उनकी हिंसा में उतनी ही उत्तरोत्तर अधिक वेदना, क्रूरता एवं कठोरता रहती है। जैनदर्शन में भूमि (जिसमें खनिज भी सम्मिलित है), पानी, वायु, अग्नि और वनस्पति को भी एकेन्द्रिय जीव माना है। अतः इनके प्रति भी करुणाभाव रखते हुए इनका अत्यल्प आवश्यकतानुसार ही उपभोग करना चाहिए। इन प्रमुख पाँच प्राकृतिक भौतिक तत्त्वों का संरक्षण जैन दर्शन का पर्यावरण-संरक्षण के लिए एक अनूठा विधान है। अचौर्य व्रत
किसी भी वस्तु को बिना पूछे लेना या उसके स्वामी की सहज स्वेच्छा के बिना लेना चोरी है। अचौर्य व्रत में भूली-बिसरी, गिरी-पड़ी वस्तु को लेना भी निषिद्ध है। भोले एवं निरक्षर व्यक्तियों को फुसलाकर, दबाव डालकर, जबरन, उनकी कोई वस्तु लेना भी चोरी है। किसी वस्तु को वास्तविक मूल्य से कम पर क्रय करना, चोरी में सहयोगी होना, भूमिगत धन आदि निकालना, वस्तुओं में मिलावट करना, हीनाधिक माप-तौल करना, राज्य के करों की चोरी करना ये सब अचौर्य व्रत के अतिचार हैं। अचौर्य व्रत से सभी प्रकार के पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्व, हिंसा, शोषण आदि समाप्त हो सकते हैं और इससे पर्यावरण शान्त व सुखप्रद बन सकता है। अपरिग्रह
'अपरिग्रह' का अर्थ है कि आवश्यकताएं न्यूनतम हों और उनकी पूर्ति के लिए भौतिक एवं अन्य पदार्थों का कम से कम संग्रहण किया जावे। इस समय पर्यावरण प्रदूषण का प्रमुख कारण बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद (Consumerism) है। इसका सहज सशक्त समाधान जैन दर्शन के अपरिग्रह व्रत से ही सम्भव है। मनुष्य की आवश्यकताएं जनसंख्या की अनियंत्रित असीम अभिवृद्धि के साथ अनवरत बढ़ रही हैं। यही नहीं प्रति व्यक्ति भी आवश्यकताएं अब पहिले से कई गुनी हैं और निरन्तर बढ़ रही हैं। समृद्ध देशों अमरीका आदि में तो प्रति व्यक्ति आवश्यकताएं भारत में विद्यमान प्रति व्यक्ति से लगभग ४० गुना है। आवश्यकताओं की निरर्गल अभिवृद्धि एवं बढ़ते हुए उपभोक्तावाद के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव (भार) उनकी नवीनीकरण (Rejuvenation) क्षमता से कई गुना हो गया है और फलस्वरूप वे द्रुतगति से नष्ट हो रहे हैं। उदाहरणार्थ सभी खनिज, तेल, धातु, पत्थर, वन पैदावार आदि । यदि यही हाल रहा तो शीघ्र ही प्राकृतिक संसाधन पूर्णरूपेण नष्ट हो जावेंगें और मानव जीवन दुष्कर हो जावेगा। पर्यावरण एवं अपनी स्वयं की सुरक्षा के लिए मनुष्य को अपरिग्रह व्रत का पालन करना ही चाहिए। ब्रह्मचर्य
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, पर्यावरण-प्रदूषण का प्रमुख कारण जनसंख्या की अभिवृद्धि है। ब्रह्मचर्य व्रत इस भीषण समस्या का सहज समाधान है। इस व्रत का पालन स्वेच्छा से किया जाता है। अतः किसी प्रकार के दबाव, प्रलोभन
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