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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार
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ईश्वरवाद एवं नियतिवाद भी अंध विश्वास है । यदि सभी कुछ ईश्वर करता है या जैसा होना है वही होना है, नियत है तो फिर कोई भी किसी प्रकार से दोषी नहीं है, सारे नियम, कानून आचार संहिता व्यर्थ है । पर्यावरण प्रदूषण भी ईश्वर ने किया या होना ही था तो वही ठीक करेगा। यह निरा अन्ध विश्वास है । पर्यावरण प्रदूषण मनुष्य की विकृत प्रवृत्तियों के कारण है और उसे सम्यक् प्रवृत्तियों से ठीक किया जा सकता है।
भारतीय संस्कृति में महापुरुषों की पूजा-अर्चना का विधान है। इसका उद्देश्य यही है कि जिस सम्यक् आचार संहिता का, सम्यक् मार्ग का महापुरुषों ने स्वयं पालन किया है और स्वयं के अनुभूत आधार पर हमारे लिये निर्दिष्ट किया है, उसका हम यथाशक्ति अनुसरण करें। उनकी मूर्तियों पर ध्यान लगाकर या अमूर्त आत्म-स्वरूप का चिन्तन कर उनके गुणों का स्मरण करें और निर्दिष्ट मार्ग पर चलने का प्रयास करें । पूजा-आराधना की यह सम्यक् अवधारणा लगभग विलुप्त हो गई है । जैन धर्मावलम्बी भी अधिकांशतया भौतिक सुख-सुविधाएं मांगने ही मंदिरों में जाते हैं, जबकि जैन आगमों में वीतराग तीर्थंकर प्रतिमा से भौतिक वस्तुएं मांगना सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। साधुओं से भी इसी प्रकार की कामनाएं की जाती है । महापुरुष निस्सन्देह पूजनीय है, किन्तु वे सिद्धालय मोक्ष - स्थल से या स्वर्ग से आकर हमारे लिये कुछ करेंगे, यह अवधारणा उचित नहीं है। हमें हमारे कर्मों का ही फल मिलेगा। महापुरुषों द्वारा निर्दिष्ट आचरण (कर्म) से शुभ कर्मों (पुण्य) का बंध होता है और सुखद फल मिलता है । स्थानकवासी जैन समाज के अनेक लोग यद्यपि मूर्तिपूजा के अनुयायी नहीं हैं, और अपने तीर्थंकरों की मूर्ति की पूजा भी नहीं करते हैं, किन्तु माताजी, भैरोजी आदि की पूजा- अर्चना निःसंकोच करते हैं। किसी भी महापुरुष की या देव की मूर्ति हमें कुछ दे देगी, यह नितान्त अन्ध विश्वास है, किन्तु दुर्भाग्य से यह इस वैज्ञानि युग में भी बढ़ रहा है 1
अणुव्रत / महाव्रत
स्व-पर हित जिसमें पर्यावरण संरक्षण स्वतः अन्तर्निहित है, के लिये जैन आचार-संहिता में श्रावकों (गृहस्थों) के लिये अणुव्रतों और साधुओं के लिये महाव्रतों के पालन की अनिवार्यता है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य, इन पांच अणुव्रतों / महाव्रतों के सम्यक् अनुपालन से ही व्यक्ति स्व-पर कल्याण-मार्ग का अनुगामी होता है । अहिंसा
जैन दर्शन में अहिंसा का इतना अधिक महत्त्व है कि ये दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हो गये हैं । जैनागम में जीव पाँच प्रकार के बताये गये हैं । एकेन्द्रिय (स्थावर) जिनमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है, द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां होती हैं, त्रीन्द्रिय में स्पर्शन, रसना और घ्राण, चतुरिन्द्रिय में स्पर्शन, रसना, घ्राण एवं चक्षु तथा पंचेन्द्रिय में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं कर्ण पांचों इन्द्रियां होती हैं ।
मुनियों (साधुओं) के लिए सभी प्रकार की हिंसा वर्जित है । इसीलिए वे महाव्रती होते हैं। गृहस्थ व्यक्ति उद्यमी (व्यापार, उद्योगजनित) आरम्भी ( गृहकार्य में ) एवं
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