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________________ ३२८ जिनवाणी-विशेषाङ्क यहां तक कि जीव की सर्वोत्कृष्ट, शुद्ध, परमात्म सिद्ध-अवस्था में भी सभी सिद्ध अपने-अपने आत्म-प्रदेशों में अनन्त सिद्ध आत्माओं को अवगाहना शक्ति से स्थान देते हैं अर्थात् वहां भी पारस्परिक सहयोग है। सिद्धालय में सूक्ष्म निगोदिया जीव भी प्रचुर मात्रा में रहते हैं और अवगाहना पाते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति इस परस्पर हितैषी, सहयोगी सहजीवी सिद्धान्त (Symbiosis) को समझ ले और इसके अनुरूप आचरण करे तो व्यक्ति के निजी एवं सामाजिक जीवन तथा भौतिक पर्यावरण में किसी प्रकार की विकृति नहीं आएगी। प्रत्येक अपराधी नितान्त व्यक्तिवादी होता है, वह अन्य के प्रति अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं मानता। एक नशेड़ी रेल लाइनों की फिश प्लेंटे, बड़े नालों के मुंह के ढक्कन तक चुराकर सस्ते में नशे के लिये बेच देता है, उसकी एकमात्र प्रतिबद्धता निजी स्वार्थ, निजी आवश्यकता की पूर्ति है, अन्य को इससे कितनी भी अधिक हानि हो, इससे उसका कोई सरोकार नहीं रहता। यही स्थिति अन्य अपराधियों, रिश्वतखोरों की है। जब व्यक्ति एकाकी, व्यक्तिवादी (Individualist) हो जाता है तभी अपराध की ओर प्रवृत्त होता है। यदि दूसरों (चेतन-अचेतन दोनों) के प्रति संवेदनशील रहे तो वह कोई अपराध नहीं कर सकता। एक उद्योगपति निजी स्वार्थ-लाभ के कारण, कारखाने के अपशिष्ट को उपचारित नहीं करता, नदी-नालों एवं वायु में छोड़ देता है जिसके प्रदूषण से अत्यधिक हानि होती है। सहयोगी सहजीवन का उदाहरण मधुमक्खी एवं पौधों का है। मधुमक्खी फूलों से रस लेती है, और पौधों के परागण में सहायक होती है। जैनागम में षट् लेश्याओं (शुद्ध एवं कलुषित प्रवृत्तियों) को वृक्ष से फल ग्रहण करने की प्रक्रिया से समझाया गया है। यदि कोई व्यक्ति केवल नीचे स्वतः गिरे फल लेता है तो उसके शुक्ल लेश्या होती है अर्थात् वह शुद्ध प्रवृत्ति का द्योतक है। फल के लिये पूरे वृक्ष को काटने वाले के कृष्ण अर्थात् सर्वाधिक कलुषित प्रवृत्ति है। पद्म व पीत लेश्या की अपेक्षा कापोत व नील लेश्या क्रमशः अधिकाधिक कलुषित प्रवृत्तियां है। वृक्षों के फल-मात्र ग्रहण करके मनुष्य या जानवर अपनी आवश्यकता पूर्ति के साथ-साथ वृक्ष के बीज बिखेरकर उसके प्रजनन में सहायक होते हैं। यह भी सहयोगी सहजीवी (Symbiotic) व्यवस्था है। अन्धविश्वास सम्यक्त्व के विपरीत मिथ्यात्व ही अन्ध विश्वास का कारण है। सम्यक्त्व का सर्वाधिक उपयुक्त अंग्रेजी रूपान्तर रेशनल' हो सकता है। जिसका अर्थ विवेकी, सर्वश्रेष्ठ, यथार्थ अवधारणा एवं तदनुसार आचरण है। आदिवासी क्षेत्रों में रोग-निवारण या कार्य-सिद्धि के लिये व्रत लिया जाता है कि ५०-१०० एकड़ या इससे अधिक वनक्षेत्र जला दिया जाय । इस अन्धविश्वास के कारण अब तक बृहत् वन क्षेत्र जलाकर नष्ट कर दिये गये हैं। अनेकत्र रोगों या आपत्तियों का कारण किसी महिला को मानकर उसे डायन कहा जाता है और इसी अन्धविश्वास में इन निरीह महिलाओं को मारने की घटनाएं हो रही हैं। वास्तव में इसके पीछे किसी समर्थ व्यक्ति की कुटिल वांछाएं पाई गई हैं। निरीह पशुओं की बलि भी निरा अन्ध विश्वास है। कई अन्ध विश्वासी व्यक्ति तांत्रिकों के जाल में फंसकर दूसरों के ही नहीं अपने स्वयं के बच्चों को भी बलि चढ़ाकर हत्या कर देते हैं। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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