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________________ सम्यग्दर्शन: जीवन-व्यवहार ३२७ यहां प्रथम सूत्र में 'मार्ग' में एक वचन का प्रयोग महत्वपूर्ण है। इसका अभिप्राय है कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र तीनों का मिलकर एक ही मोक्ष मार्ग है, पृथक्-पृथक् नहीं। इससे स्पष्ट है कि केवल सम्यक् अवधारणा या मात्र सम्यक् ज्ञान अकेले कार्यकारी नहीं हैं, तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग है। अतः अवधारणा, ज्ञान एवं आचरण तीनों एक साथ आवश्यक हैं। विगत चार-पांच दशक से जैन धर्मावलम्बियों के एक वर्ग द्वारा यह विचारधारा प्रतिपादित एवं प्रचारित की जा रही है कि मात्र सम्यक् दर्शन ही महत्त्वपूर्ण है, ज्ञान एवं आचरण स्वतः आ जावेंगे। वस्तुत: दर्शन सम्यक् होने पर ज्ञान तो स्वत: सम्यक् हो जाएगा , किन्तु चारित्र के लिए पुरुषार्थ आवश्यक है। बिना पुरुषार्थ वे देशविरत एवं सर्वविरत होना संभव नहीं। किन्तु, यह वर्ग आचरण को गौण करके शिथिलाचरण का ही पोषण कर रहा है। ये पदार्थों की परस्पर सहयोगी कार्य-कारण व्यवस्था को भी नहीं मानते और कहते हैं कि कोई अन्य पदार्थ किसी अन्य का किसी प्रकार से सहभागी नहीं है। ये कहते हैं कि कुम्हार घड़ा नहीं बनाता, मिट्टी स्वतः घड़ा बनती है आदि आदि। किन्तु ये विष ग्रहण नहीं करते, क्योंकि इसका प्रभाव तत्काल पता लग जावेगा और ये परस्पर प्रभाव को जानकर, मानकर ही औषध ग्रहण करते हैं। ये कहते कुछ हैं और करते कछ और हैं। सहयोगी सहजीवन पर्यावरण के प्रत्येक घटक की, जगत् के सभी पदार्थों की परस्पर हितैषी, सहयोगी व्यवस्था पर्यावरण-संरक्षण का मूलभूत सिद्धान्त है, जिसकी पुष्टि जैनागम के सर्वमान्य ग्रन्थ उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र के पांचवे अध्याय में निम्नलिखित सूत्रों से की गई है गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः।-तत्त्वार्थसूत्र, ५.१७ ।। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की गति में तथा अधर्म द्रव्य उनके ठहरने में सहायक होते हैं और यह इनका उपकार है। आकाशस्यावगाहः ।-तत्त्वार्थसूत्र, ५.१८ आकाश द्रव्य सभी को अवकाश (स्थान) देता है और यह इसका उपकार है। शरीरवाड्मन:प्राणापाना: पुद्गलानाम्। -तत्त्वार्थसूत्र, ५.१९ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ।-तत्त्वार्थसूत्र, ५.२० जीव के शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छवास ये पुद्गल द्रव्य के उपकार या कार्य हैं, अर्थात् इनकी रचना पुद्गल से होती है। सुख, दुःख, जीवन और मरण ये भी पुद्गल के उपकार हैं। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।' -तत्त्वार्थसूत्र, ५.२१ सभी छोटे बड़े जीवों का आपस में एक दूसरे की सहायता करना जीव द्रव्य का उपकार है । वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य। -तत्त्वार्थसूत्र, ५.७२ सभी द्रव्यों के प्रवर्तन, परिणमन, क्रिया, सापेक्षता परत्व-अपरत्व ये सब काल द्रव्य की सहायता से होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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