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________________ सम्यक्त्व - सूक्तियां x महावीर जैन • जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन की दिव्य ज्योति से ज्योतिर्मय हो उठता है वह निश्चित रूप से संसाररूपी कारागृह से मुक्त हो जाता 1 • सम्यग्दृष्टि जीव विवेक के प्रकाश में अपनी जीवन-यात्रा प्रारम्भ करता है, और अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर गतिशील रहता है 1 • सम्यग्दृष्टि जीव हंस के समान होता है । वह सार वस्तु को ग्रहण करता है एवं असार वस्तु का परित्याग कर देता है । • सम्यग्दृष्टि जीव जो मेरा सो जाता नहीं, जाता सो मेरा नहीं इस सूत्र को अपने जीवन में चरितार्थ करता है। • जो व्यक्ति सम्यग्दृष्टि है वह मोह-माया में पंक-कमल की भाँति निर्लिप्त रहता है। • सम्यग्दृष्टि जीव परदोष का नहीं, अपितु निज दोष का परिष्कार करता है । • सम्यग्दृष्टि जीव मन, वचन व काया पर संयम रखता है और आत्मानुशासित होता है। • सम्यग्दृष्टि सुख-दुःख, लाभ-हानि, सम्मान-अपमान में समभाव रखता है 1 • सम्यग्दृष्टि व्यक्ति भौतिक सुखों से विमुख हो जाता है और आध्यात्मिक सुख सम्मुख बन जाता है। • सम्यग्दर्शन आत्म जागृति का मूल मंत्र है और अध्यात्म साधना की अति दृढ़ आधार शिला है । • सम्यग्दर्शन मुक्ति-प्राप्ति का मंगलमय द्वार है, और वह आत्मज्ञान का मूल बीज है । ● आत्मा जब सम्यग्दर्शी होता है, तब वह संसाराभिमुखी नहीं रहता है, मोक्षाभिमुखी बन जाता है 1 1 • जो व्यक्ति सम्यग्दृष्टि है, वह अन्तर्मुखी होता है। वह निज दोषों का निरीक्षण करता है। • सम्यग्दर्शन वह नौका है, जिसमें आरूढ़ व्यक्ति संसार सागर को पार कर लेता है । • सम्यग्दर्शन एक ऐसी पारसमणि है, जिसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपने जीवन रूपी लोहखण्ड को स्वर्णमय बना देता है। • सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति की दृष्टि में एक ऐसा अनुपम चमत्कार आ जाता है जिससे वह अन्य व्यक्ति में दुर्गुण नहीं, अपितु सद्गुणों को देखता है। • सम्यग्दर्शन एक ऐसा कवच है जिससे आत्मा मिथ्यात्वरूपी शत्रुओं से सुरक्षित हो जाता है 1 • सम्यग्दर्शन आत्मा का मौलिक गुण है, किन्तु मिथ्यात्व के उदय में वह गुण प्रकट नहीं हो पाता है 1 • सम्यक्त्व जीव के भव-भ्रमण का अन्त करता है और मिथ्यात्व भव- भ्रमण की परम्परा को वृद्धिंगत करता है 1 • सम्यक्त्व एक जगमगाता प्रकाश है, अमृत रस की धार है, जबकि मिथ्यात्व अतीव सघन अंधकार है, और हलाहल विष है । • सम्यक्त्व आत्मा की स्वतन्त्रता का राजमार्ग है, जबकि मिथ्यात्व आत्मा की परतन्त्रता का कण्टकाकीर्ण मार्ग है । - आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.सा. की सन्निधि में अध्ययनरत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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