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________________ ३२४ ................................ जिनवाणी-विशेषाङ्क अंक प्राप्त किए वह ज्यादा बड़ा ज्ञानी । अंतर में ज्ञान का अनंतवां भाग भी उतरा या नहीं, यह कोई नहीं जानना चाहता। आज कहां है ज्ञान-गुरु? . तीसरा तत्त्व 'साधन' है। साधन में हम मुख्य रूप से अध्यापक (गुरु) और पुस्तक पर चर्चा कर लेते हैं। आज समाज में, दैनिक-पत्रों में तथा वार्ताओं के मध्य स्थान-स्थान पर चर्चा सुनाई देती है कि अध्यापक-वर्ग बच्चों को ढंग से नहीं पढ़ाते, घर पर ट्यूशन बुलाते हैं-कक्षा में कम ध्यान देते हैं। ये सारी बातें जिस तथ्य को उजागर करती हैं वह यह कि आज का अध्यापक भी वह नहीं जो उसे होना चाहिए। सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् दर्शन का सर्वाधिक संबंध गुरु से है। गुरु ही है जो यथार्थ तत्त्वों का परिचय शिक्षार्थी को देता है, गुरु ही है जो शिक्षार्थी के हृदय में यथार्थ के प्रति श्रद्धान को उजागर करने में सहायता करता है। गुरु ही है जो शिष्य को देव और धर्म का रहस्य समझाता है पर वैसा गुरु है कहां? आध्यात्मिक ज्ञान की बात को छोड़िए, शिक्षा जगत् में घुस कर यदि तमाशा देखा जाए तो गुरु नाम की चीज ही दुर्लभ हो गई है। अधिकतर शिक्षक वेतन भोगी,. अर्थ की दौड़ में हांपते हुए, किताबें-नोट्स लिखते हुए, ट्यूशन करते हुए अपने आप को पैसों के पर्दे में छुपाते हुए जाने कहां खो गए हैं? साधन का दूसरा रूप है-पुस्तक। पूर्व प्राथमिक-स्तर से स्नातकोत्तर एवं शोध-शिक्षा तक की पुस्तकों को टटोल लीजिए, आत्म-निर्माण, आध्यात्मिक सृजन या पेट की जगह ठेठ की शिक्षा वाली बात कम ही मिलेगी। फिर उसका भावनात्मक जुड़ाव शिक्षार्थी से नहीं हो पाता, क्योंकि न तो उस तरह का वातावरण विद्यालय में मिलता, न घर में, न समाज में। अध्यापक भी यदि उस पुस्तक से उस बात को उठाएगा तो इतनी सतही तौर पर कि उस बात का कोई अनुभव भी नहीं कर पाएगा। स्पष्ट है कि वर्तमान शिक्षा जीवन में न तो यथार्थ ज्ञान देने वाली है, न यथार्थ दृष्टि। उसीका प्रतिफल है-विश्व की बढ़ती हुई समस्याएं, झगड़े, आपसी-विवाद, तनाव और अशांति। शिक्षा सही दृष्टि कब दे सकेगी? शिक्षा-जगत् में कुछ परिवर्तन निकट समय में हो पाएगा, ऐसा नहीं लगता जबकि परस्थितियां एवं परिवेश दिन प्रति दिन विकट-दर-विकट बनते जा रहे हैं। ऐसे में हम क्या करें? मेरी दृष्टि में इसका एक मात्र हल आज के माता-पिता एवं धर्मगरुओं के पास है। बचपन में दिए गए संस्कारों ने यदि बालक की दृष्टि को यथार्थ के अनुकूल बना दिया तो आगे जाकर वह चाहे जो पढ़े, चाहे जहां पढ़े, चाहे जैसे पढ़े पर अपने स्वभाव व संस्कारों के अनुरूप उन्हें ग्रहण कर सकेगा, समझ सकेगा। शिक्षा और सम्यक् दर्शन की बात करते हए यही कहा जा सकता है कि शिक्षा से यदि सही दृष्टि मिल जाए तो विद्यालयों एवं महाविद्यालयों का पुस्तकीय ज्ञान भी जीवन-निर्माण में सहयोगी एवं उपयोगी बन जाएगा। १०/५६७ चौपासनी हाऊसिंग बोर्ड जोधपुर (राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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