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________________ ३२३ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार शिक्षा जगत् में प्रवेश का आधार ___ पढ़ने का यथोचित समय आने पर बालक को शाला में पढ़ने हेतु भेजा जाता है। शिक्षा-जगत् में उसका यह प्रवेश भी अर्थ और सामाजिक-स्तर की तुला पर तौला जाता है तथा सत्यदृष्टि को दूर रखा जाता है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में ऊंचा दान देकर, ऊंची फीसें भर कर छोटे से बालक को विद्योपार्जन के लिए बिठाया जाता है तब उसके जीवन-निर्माण का प्रश्न बहुत पीछे छूट जाता है। प्रश्नों की पंक्ति में आगे ही आगे प्रश्न होता है-मेरे अन्य साथियों के बच्चे कहां पढ़ रहे हैं ? मेरे बच्चे वहीं, उनसे नामवर स्कूल में पढ़ें । मूल में ही जब भूल होती है तो भावी जीवन में दृष्टि सम्यक् बन पाएगी, यह कैसे कहा जा सकता है ? साध्य-साधक-साधन : तीनों यथार्थ से दूर ___ साध्य, साधक और साधना, आइए अब हम इन तीन पहलुओं पर विचार करें। शिक्षा जगत् में साध्य है-शिक्षा। साधक हैं–विद्यार्थी और साधन हैं-अध्यापक, ग्रंथ या पुस्तकें आदि। प्रथम तत्त्व 'साध्य' तो प्रमाण-पत्रों, डिग्रियों आदि को प्राप्त करने तक सीमित हो गया है। जब साध्य ज्ञान नहीं तो फिर यथार्थ ज्ञान की तो बात ही क्या की जाय और जहां यथार्थ ज्ञान ही नहीं वहां सम्यक् दृष्टि भला कैसे आ पाएगी? आज के शिक्षा जगत् की व्यवस्था को एक नजर से देखें तो हम जान जाएंगे कि विद्यार्थी का लक्ष्य शिक्षा नहीं है, श्रेणी में उत्तीर्ण होना ही उसका एक मात्र लक्ष्य है। वह पढ़े या बिना पढ़े, समझे या बिना समझे, येन-केन-प्रकारेण बस उत्तीर्णता का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना चाहता है। इस उत्तीर्णता के प्रमाण-पत्र को हासिल करने में नकल करना, उत्तर-पुस्तिकाएं जांचने वालों तक पहुंच बना कर अंक बढ़वाना, निम्नतम हथकंडे अपना कर प्रश्न-पत्र परीक्षा से पूर्व हासिल करना, और ऐसी ही अनेक अमर्यादित, अशोभनीय, अनैतिक बातें आज सम्मिलित हो गई हैं। क्या उच्च स्तरीय शिक्षा तक इस तरह पहुंच कर कोई व्यक्ति ज्ञानी माना जाए? शिक्षा का मूल अर्थ है सीखना। जब आज की शिक्षा में जानकारी ही नहीं तो सीखना कहां से होगा? ज्ञान के जिस प्रमाण-पत्र का भार व्यक्ति आज वहन कर रहा है उस प्रमाण-पत्र के वजन जितना ज्ञान भी उसके अन्तर में नहीं उतर पाता फिर भला दृष्टि में यथार्थता, औचित्य, विवेक, सम्यक्पना किस तरह से आ पाएगा। विद्यार्थी विद्या से दूर : अज्ञान में चूर साध्य के पश्चात् हम आते हैं साधक पर । साधक है शिक्षार्थी, विद्यार्थी, ज्ञानार्थी । विद्यार्थी का लक्ष्य भी अंक प्राप्त करना है। जिसका लक्ष्य अंकों की प्राप्ति हो वह भला कुछ सीखे या न सीखे, क्या फर्क पड़ता है। उसे युधिष्ठिर तो बनना नहीं है कि पढ़ाए हुए पाठ को जीवन में उतारने के बाद ही कहे कि मुझे अब पाठ याद हुआ है। अब जहां न यथार्थ ज्ञान हो, न वातावरण का परिवेश उसके लायक हो तो भला वहां सम्यक् दृष्टि बन पाना किस तरह मुमकिन बन सकेगा। अध्यापक नम्बर देखता है, माता-पिता नम्बर देखते हैं, बाकी सब भी नम्बर ही देखते हैं। जिसने जितने ज्यादा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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