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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार ३१९ नियति, कर्म और पुरुषार्थ । जैसे गलत समय अथवा मौसम में बोया हुआ बीज नहीं उगता । जैसा बीज होगा वैसाही फल मिलेगा। नीम से आम पैदा नहीं होते । पुरुषार्थ करने के पश्चात् भी नियति के अभाव में बोने की सही प्रक्रिया एवं देखभाल के बावजूद सभी बीजों का विकास एक जैसा नहीं होता। ठीक उसी प्रकार अनुकूल एवम् प्रतिकूल परिस्थितियां बनती हैं। नियति कर्मोदय कौनसे काल में किस क्षेत्र में किस सम्पर्क से उपस्थित होगी हम जैसे अधूरे ज्ञानियों की समझ से परे है। केवल पुरुषार्थ ही हमारे नियंत्रण में है । परिस्थितियां शुभ अथवा अशुभ कर्मों के कारण बनती हैं, परन्तु प्रयास एवम् पुरुषार्थ द्वारा उनको आगे-पीछे किया जा सकता है । प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदला जा सकता है । परन्तु किसी भी हालत में अशुभ कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं । जिस प्रकार यदि कोई हमसे अपनी उधारी का भुगतान मांगे और हम उससे थोड़ा समय मांगे तो मांगने वाला थोड़ा समय दे देता है । परन्तु बार-बार मांगने के पश्चात् भी हम कर्जा न चुकायें तो कर्जा मांगने वाला हमारे न चाहते हुए भी कानून की मदद द्वारा अपना भुगतान ले लेगा । अच्छा व्यापारी तो कर्जा चुकाने पर खुश ही होता है दुःखी नहीं होता । उसी प्रकार सम्यक् दर्शन होने के पश्चात् रोग होने पर व्यक्ति रोग का कारण अपनी गलतियों को मानेगा और धैर्य एवं सहनशीलता से समभावपूर्वक उसको सहन कर कर्मों से हलका होना चाहेगा । रोग की स्थिति में हाय-हाय कर चिल्लाकर सबको परेशान कर नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करेगा । जिससे कर्मों का रोग सदैव के लिये चला जावेगा । परन्तु अपरिहार्य कारणों से धैर्य एवम् सहनशीलता के अभाव में अगर उपचार भी करायेगा तो इस बात का अवश्य विवेक रखेगा कि उपचार के लिये जो साधन, साध्य एवम् सामग्री कार्य में ली जा रही है वह यथा संभव पवित्र हो । यदि उपचार कर्म बन्धन का कारण बने तो उसका मतलब कर्जा चुकाने के लिए ऊंचे ब्याज की दर पर नया कर्ज लेने के समान होगा । मिथ्यात्व सब पापों की जड 1 परन्तु आज अज्ञानवश अहिंसा - प्रेमी उपचार के नाम पर हिंसक दवाइयों की गवेषणा तक नहीं करते । उनके गले में ऐसी दवाइयां कैसे उतर जाती हैं ? भूल का प्रायश्चित्त होता है । जानते हुये भूलें करना एवम् बाद में प्रायश्चित्त लेकर दोषों से अपने आपका शुद्धिकरण करना कहां तक तर्क संगत है ? वे प्रभावशाली, स्वावलम्बी, अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों को सीखने, समझने एवम् अपनाने हेतु क्यों नहीं प्रेरित होते ? ऐसी पद्धतियों के प्रशिक्षण, प्रचार-प्रसार एवम् शोध हेतु जनसाधारण को प्रेरणा क्यों नहीं देते ? हिंसा पर आधारित अस्पतालों के निर्माण एवम् संचालन तथा प्रेरणा के पीछे उनकी क्या दृष्टि है, चिन्तन का विषय है । इसी कारण जैन धर्म में मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप माना है । भारत भर में बच्चों के पोलियो पल्स के टीके चन्द माह पहले लगाने का अभियान चला, परन्तु शायद ही किसी ने यह जानने का प्रयास किया कि इनके कोई दुष्प्रभाव तो नहीं होते? ये दवाइयां कैसे बनती हैं? इनके निर्माण में बछडों के ताजे खून एवम् बन्दरों के गुर्दों के अवयवों की आवश्यकता होती है। अमेरिका में १००० परिवारों को ७० लाख डालर का भुगतान इनके दुष्प्रभावों के कारण करना पड़ा । ६० से ७० प्रतिशत इन दवाओं का निर्माण करने वाली कम्पनियां दुष्प्रभावों की क्षतिपूर्ति का भुगतान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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