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जिनवाणी-विशेषाङ्क जाता है। जीवन के अंतिम समय तक उस संचित-संगृहीत प्राण ऊर्जा को संतुलित एवं नियन्त्रित कैसे रखा जावे, यह स्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकता है। पूर्वकृत कर्मों के आधार पर ही हमें अपना स्वास्थ्य, सत्ता, साधन, संयोग अथवा वियोग मिलते हैं। अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियां बनती हैं। परन्तु कभी कभी पूर्वकृत पुण्यों के उदय से व्यक्ति को मनचाहा रूप, सत्ता, बल, साधन एवम् सफलतायें लगातार मिलने लगती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियां, वियोग, रोग यदि उत्पन्न न हो तो व्यक्ति अज्ञानवश अभिमानपूर्वक कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। कर्मसिद्धान्त को समझने के लिये हमें चिन्तन करना होगा कि वे कौनसे कारण हैं जिनसे बहुत से बालक जन्म से ही विकलांग अथवा रोग ग्रस्त होते हैं? कोई गरीब के घर में तो कोई अमीर के घर में जन्म क्यों लेते हैं? कोई बुद्धिमान् तो कोई मूर्ख क्यों बनते हैं? भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र का सर्वोच्च पद प्राप्त करने का अधिकार है, परन्तु चाहते हुये अथवा प्रयास करने के बावजूद भी सभी राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाते? संसार की सारी विसंगतियां एवम् हमारे चारों तरफ का वातावरण हमें पुनर्जन्म एवम् कर्मों की सत्ता के बारे में निरन्तर सजग और सतर्क कर रहे हैं। अज्ञानवश उसके महत्त्व को न स्वीकारने से उसके प्रभाव से कोई बच नहीं सकता। पारस को पत्थर कहने से वह पत्थर नहीं हो जाता और पत्थर को पारस मान लेने से वह पारस नहीं बन जाता। 'सम्यक् दर्शन' रोग के इस मूल कारण पर दृष्टि डालता है एवम् अशुभ कर्मों को दूर करने की प्रेरणा देता है, जो स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है। ___ अपनी सफलताओं का अहम् करने वालों के जैसे ही पूर्वकृत पुण्यों का क्षय हो जाता है और अशुभ कर्मों का उदय प्रारम्भ होने लगता है उसका अहम् चूर-चूर हो जाता है। अपराध के प्रथम प्रयास में न पकड़ा जाने वाला यदि अपनी सफलता पर गर्व करे तो यह उसका अज्ञान ही होगा।
जैसे पूर्वकृत कर्मों का हमारे वर्तमान जीवन पर प्रभाव पड़ता है, ठीक उसी प्रकार वर्तमान में किये जाने वाले कर्मों का भी भविष्य में फल भोगना पड़ेगा। राग एवम् द्वेष कर्म-बन्धन के कारण हैं। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, मन, वचन और काया के अशुभयोग तथा प्रमाद अशुभ कर्मों को आकर्षित करते हैं अतः दुःख, पीड़ा, चिन्ता अथवा रोग पैदा होते हैं। जितना-जितना इनसे बचा जावेगा हम रोगमुक्त होते जावेंगे। अतः स्वस्थ रहने के लिये मन, वचन और काया की शुद्धि आवश्यक है। हम प्रत्येक प्रवृत्ति करने से पूर्व उसके उद्देश्य, हानि-लाभ एवं प्राथमिकताओं की विवेकपूर्वक जांच पड़ताल करें और ऐसा कोई कार्य न करें जिससे अनावश्यक मन, वचन एवम् काया में विकार पैदा हो । रोगों के अन्य कारण एवं उपचार की सीमायें
रोग होने के मुख्य कारण हैं हमारे पूर्वकृत संचित अशुभ कर्मों का उदय, हमारी अप्राकृतिक जीवन पद्धति, अर्थात् असंयमित, अनियमित, अनियन्त्रित, अविवेकपूर्ण अपनी क्षमताओं के प्रतिकूल शारीरिक, मानसिक एवम् आत्मिक अशुभ प्रवृत्तियां । पांच बातों के संयोग से किसी परिस्थिति का निर्माण तथा कार्य की सफलता अथवा असफलता निर्भर करती है। ये पांच तथ्य हैं-काल की परिपक्वता, वस्तु का स्वभाव,
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