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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार ३१७ हैं। हमारी स्थिति उस शेर के समान हो गई है जो भेड़ियों के बीच पल कर बड़ा होने से अपनी शक्तियों का भान भूल जाता है। सम्यग्दर्शन से आत्मा और शरीर का भेदज्ञान होता है। आत्मा का साक्षात्कार होने से उसकी अनन्त शक्ति का भान होने लगता है। उसके ऊपर आये कर्मों की तरफ दृष्टि जाने लगती है तथा उसके शुद्धिकरण का प्रयास प्रारम्भ होने लगता है। सभी चेतनाशील प्राणियों में एक जैसी आत्मा के दर्शन होने लगते हैं। सत्य प्रकट होते ही पूर्वाग्रह एवम् एकान्तवादी दृष्टिकोण समाप्त होने लगता है और अनेकान्तवादी दृष्टि विकसित होने लगती है। जैसे खुद को पीड़ा, दुःख होता है वैसे ही दूसरों के दुःख का अनुभव होने लगता है। अतः स्वयं के लाभ के लिये दूसरों को कष्ट पहुंचाने की प्रवृत्ति कम होने लगती है। सत्य को पाने के लिये उसका सारा प्रयास होने लगता है एवम् अनुपयोगी कार्यों के प्रति उसमें उदासीनता आने लगती है और जीवन में समभाव बढ़ने लगता है अर्थात् उसके जीवन में सम (समता), संवेग (सत्य को पाने की तीव्र अभिलाषा) निर्वेद (अनुपयोगी कार्यों के प्रति उपेक्षावृत्ति) अनुकम्पा (प्राणीमात्र के प्रति दया, करुणा, परोपकार, मैत्री का भाव) तथा सत्य के प्रति आस्था हो जाती है। यही सम्यक्त्व के पांच लक्षण हैं। सम्यक्त्वी का उद्देश्य मेरा जो सच्चा के स्थान पर सच्चा जो मेरा हो जाता है। उसका जीवन स्व-पर कल्याण के लिये ही कार्यरत रहता है। सम्यग्दर्शी का चिकित्सा के प्रति दृष्टिकोण सम्यक्दर्शन होने पर व्यक्ति रोग के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, वर्तमान एवम् भूत सम्बन्धी शारीरिक, मानसिक एवम् आत्मिक कारणों को देखेगा, समझेगा और उन कारणों से बचने का प्रयास करने लगेगा। फलतः रोग उत्पन्न होने की सम्भावनायें बहुत कम हो जावेंगी, जो स्वस्थ रहने के लिये अति आवश्यक है। रोग उत्पन्न हो भी गया हो तो. उसके लिये दूसरों को दोष देने की बजाय स्वयं की गलतियों को ही उसका प्रमुख कारण मानेगा तथा धैर्य एवं सहनशीलता पूर्वक उसका उपचार करेगा। उपचार कराते समय क्षणिक राहत से प्रभावित नहीं होगा, दुष्प्रभावों की उपेक्षा नहीं करेगा तथा साधन, साध्य एवम् सामग्री की पवित्रता पर विशेष ध्यान रखेगा। ऐसी दवाओं से बचेगां जिनके निर्माण एवम् परीक्षण में किसी भी जीव को कष्ट पहुंचता हो। उपचार के लिये अनावश्यक हिंसा को प्रोत्साहन नहीं देगा। आशय यह है कि सम्यक्दर्शन होने के पश्चात् व्यक्ति पाप के कार्यों अर्थात् अशुभ प्रवृत्तियों से यथासम्भव बचने का प्रयास करता हैं । "उसका जीवन पानी में कमल की भांति निर्लिप्त होने लगता है। प्रत्येक कार्य को करने में उसका विवेक एवं सजगता जागृत होने लगते हैं। अनुकूल एवम् प्रतिकूल परिस्थितियों का उस पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। उसका प्रयास नवीन कर्मों से बचना तथा पूराने कर्मों को क्षय कर आत्मा को नर से नारायण बनाने का होता है। पर्वकत कर्मों का वर्तमान जीवन से सम्बन्ध. ___ जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है। पूर्वकृत पुण्यों के आधार पर हम प्राण ऊर्जा अर्थात् श्वासों के रूप में आयुष्य का जो खजाना लेकर आते हैं प्रतिक्षण कम होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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