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________________ ३२० जिनवाणी-विशेषाङ्क मांगने वालों के कारण बन्द हो रही हैं। ऐसी अन्धानुकरण सेवाभावना वालों के पीछे कैसी सम्यक् दृष्टि है ? ऐसे कार्यों हेतु दिया गया दान कहीं अप्रत्यक्ष हिंसाको प्रोत्साहन देने के कारण अशुभ कर्मों का बन्ध तो नहीं करायेगा? सम्यक् दृष्टि रखने वालों के लिये चिन्तन का विषय है। ऐसी दवाइयों का सेवन कर अथवा अस्पतालों के निर्माण और संचालन की प्रेरणा देकर कहीं हम बूचडखानों को तो अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन नहीं दे रहे हैं। जब तक पाप से नहीं डरेंगे, धर्म की तरफ तीव्र गति से कैसे बढ पावेंगे? ठीक उसी प्रकार जब तक हिंसा से निर्मित दवा लेने का हमारा मोह भंग नहीं होगा, न तो हम पूर्ण स्वस्थ बनेंगें और न प्रभावशाली स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों को सीखने, समझने एवम् अपनाने का मानस ही बना पायेंगे। मात्र भेदविज्ञान की बातें एवं उपदेश आत्मा का साक्षात्कार नहीं करा सकेंगे। आज चिकित्सा के लिये जितने जानवरों पर अत्याचार हो रहा है उतने शायद और किसी कारण से नहीं। क्योंकि जानवरों के अवयवों की जितनी ज्यादा कीमत दवाई व्यवसाय वाले दे रहे हैं, उतने अन्य कोई व्यवसाय नहीं देते। जब दवाइयों के लिए जानवर कटेंगे तो मांसाहार को कोई रोक नहीं सकता। सम्यग्दर्शन में आस्था रखने वाले प्रत्येक साधक एवम् अहिंसा प्रेमियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा को प्रोत्साहन देने वाली प्रवृत्तियों से अपने को अलग रखना चाहिये। अन्यथा जब कर्मों का भुगतान होगा, स्थिति बड़ी दयनीय होगी जिसका अनुभव मौत की प्रतीक्षा में खड़े मूक पशुओं को बूचडखानों में देखने मात्र से हो जावेगा। शरीर में स्वयम स्वस्थ होने की क्षमता है ___ आज हमारे सारे सोच का आधार जो प्रत्यक्ष है, अभी सामने है उसके आगे पीछे जाता ही नहीं। सही आस्था लक्ष्य-प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी है। रोग कहीं बाजार में नहीं मिलता। रोग का कारण हम स्वयम् हैं। हमारी अनेक विषयों में गलत धारणायें हैं। वास्तव में दर्द हमारा सबसे बडा दोस्त है। वह हमें जगाता है। कर्तव्यबोध हेतु चिन्तन करने की प्रेरणा देता है, चेतावनी देता है। परन्तु सही दृष्टि न होने से हम उसको शत्रु मानते हैं। हम स्वप्न में हैं, बेहोशी में जी रहे हैं। दर्द उस बेहोशी को भंग कर हमें सावधान करता है। रोगी सुनना नहीं चाहता। उसको दबाना चाहता है। उपचार स्वयम् के पास है और ढूंढता है बाजार में, डाक्टर एवम् दवाइयों में । जितना डाक्टर एवम् दवा पर विश्वास है उतना अपने आप पर, अपनी छिपी क्षमताओं पर नहीं। यही तो मिथ्यात्व है। वह कभी चिन्तन करता है कि मनुष्य के अलावा अन्य चेतनाशील प्राणी अपने आपको कैसे ठीक करते हैं? क्या स्वस्थ रहने का ठेका दवा एवम् डाक्टरों के सम्पर्क में रहने वालों ने ही ले रखा है? वस्तुत: हमें इस बात पर विश्वास करना होगा कि शरीर ही अपने आपको स्वस्थ करता है, अच्छी से अच्छी दवा और चिकित्सक तो शरीर को अपना कार्य करने में सहयोग मात्र देते हैं। जिसका शरीर सहयोग करेगा वही स्वस्थ होगा। स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ग्रही दृष्टि सम्यक् दर्शन है तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करने का मूलभूत आधार भी। - जालोरी गेट के बाहर, गोल बिल्डिंग रोड जोधपुर ३४२००५ फोन ३५०९६, ३५४७१, ६२१४५४ फैक्स-०२९१-३७६८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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