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________________ ३१४ जिनवाणी-विशेषाङ्क ११. आर्हते प्रवचने निर्गता शङ्का देश-सर्वरूपा यस्य स निःशङ्कः । तदेव सत्यं निःशङ्कं यज्जिनैः प्रवेदितम् इत्येवं कृताध्यवसायः।- सूत्रकृतांग, शीलांकवृत्ति २.७. ६९, पृ. १६१, पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढी, बम्बई, १९५३ १३. मूलाचार, २/५२-५३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, १९८४ १४. इह परलोकभोगोपभोगकांक्षारहितं निःकांक्षित्वम् ॥ तत्त्वार्थवृत्ति, ६/२४ भारतीय ज्ञानपीठ, १५. 'एकान्तवाददूषित.. । पुरुषार्थसिद्धयुपायः, २४ १६. शरीरादौ शुचीति मिथ्यासंकल्परहितत्वं निर्विचिकित्सता । मुनीनां रत्नत्रयमण्डितशरीरमलदर्शनादौ निःशूकत्वं तत्र समाढौक्य वैयावृत्यविधानं वा निर्विचिकित्सता । - भावप्राभृत टीका ७७, मा दि. जैनग्रंथमाला, बम्बई, वि.सं. १९७७ १७. उपबृहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद् वृद्धिकारणम् ।-दशवैकालिक, हरिभद्र वृति ३.१८२ १८. ठिदिकरणेण जुदो सम्मादिट्ठि मुणेदव्यो।-समयप्राभृत, २५२ १९. जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणए परमसद्धाए । पियवयणं जपंतो वच्छलतां तस्स भव्वस्स ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४२१,राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास, वि.सं. २०१६ २०. प्रभावना धर्मकथादिभिस्तीर्थख्यापना.. ।-दशवैकालिकनियुक्ति, हरिभद्रवृति, १८२ पृ. १०३, . जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, १९१८ २१. प्रभाव्यते मार्गेऽनयेति प्रभावना वाद-पूजा-दान-व्याख्यान-मंत्र-तंत्रादिक्षमः... ।- मूलाचारवृत्ति, ५-४, मा दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई, वि.सं. १९७७ ___प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ , आई.टी.आई. रोड़, वाराणसी (उ.प्र.) अमृत-कुण्ड सम्यक्दृष्टि बुरे में से अच्छाई चुनता है और मिथ्यादृष्टि अच्छाई में से भी बुराई ग्रहण करता है । यह बात निम्नाङ्कित कथा से सुस्पष्ट होती हैएक बार अकबर ने बीरबल से कहा - 'मैंने एक स्वप्न देखा है।' 'वह स्वप्न कौनसा है ?' बीरबल की विनम्र जिज्ञासा थी। “मैं और तुम कहीं घूमने निकले । रास्ते में एक अमृत कुंड और दूसरा गन्दगी से व्याप्त कुण्ड उपलब्ध हुए। तुम तो गन्दगी के कुण्ड में जा गिरे और मैं अमृत कुण्ड में।" स्वप्न सुनकर सभा-भवन अट्टहास से गूंज उठा। मौलवी और बीरबल से ईर्ष्या रखने | वाले कुछ लोग इस प्रसंग से मन ही मन अत्यधिक प्रसन्न हुए। पर बीरबल विचलित नहीं हुआ ।उसकी उत्पात बुद्धि निखरी उसने नहले पर दहला रखते हुए कहा-'हजुर मुझे भी एक स्वप्न आया है उसका पूर्वार्ध आपके स्वप्न के सदृश | | ही है, किन्तु उससे आगे भी मैंने ओर कुछ देखा है।' सारी सभा में सुनने की उत्सुकता फैल गई और जानना चाहा कि आगे क्या हुआ। बीरबल ने आगे हाल सुनाते हुए कहा“जहाँपनाह ! मैं आपको चाट रहा था और आप मुझे चाट रहे थे।" | इस कथा का सारांश यही है कि सम्यग्दर्शनी का जीवन अमत को चाटने की तरह गुणग्राही होता है। जो संसार के गन्दगी युक्त वातावरण में रहकर भी सम्यक्त्व रूप अमृतरस का पान करता है और मिथ्यात्वी का जीवन इससे पूर्णतया विपरीत होता है। -पर्युषण पर्वाराधन, साध्वी श्री मैनासुन्दरी जी म.सा. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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