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सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार
३१३ बोलना ही वात्सल्य है।९ वात्सल्य भाव से युक्त व्यक्ति के प्रेम एवं सौहार्द में दिखावा नहीं होता है। उनके हृदय में उपजा यह प्रीतिभाव स्फूर्त रूप में निरंतर प्रवाहित होता रहता है। क्योंकि यह समर्पण और प्रपत्तिभाव से युक्त होता है। वात्सल्य का प्रतीक गाय और बछड़े का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के बछड़े को संकट में देखकर अपने प्राणों की परवाह किए बिना उसकी रक्षा करती है, उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि साधक भी धार्मिकजनों के सहयोग
और सहकार के लिए सभी तरह के प्रयत्न करने को तत्पर रहते हैं। वात्सल्य का यह भाव सामाजिक भावना का केन्द्रीय तत्त्व है।
८. प्रभावना - धर्मकथादि के द्वारा धर्म-तीर्थ को ख्यापित करना, उसे प्रसिद्धि में लाना या प्रचारित करना ही प्रभावना है। प्रभावना की यह प्रवृत्ति प्रवचन, धर्मकथा, वाद, नैमित्तिक, तप, विद्या, प्रसिद्ध व्रत ग्रहण, कवित्व शक्ति इन आठ अंगों द्वारा प्रवर्तित होती है। प्रभावना की यह अवधारणा किसी धार्मिक तीर्थ को महिमामंडित करने के लिए ही उपयोगी नहीं है वरन् यह व्यक्ति के मन में सदाचरण की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा देती है। तप, विशेष व्रत आदि का जीवन में क्या महत्त्व है इस पर भी तर्कपूर्ण ढंग से विचार प्रस्तुत किया जाता है। ___ ये सारे तथ्य एक साथ मिलकर व्यक्ति के मन में सदाचरण की ऐसी वृत्ति का विकास कर देते हैं कि वह सम्पूर्ण जगत् के कल्याण की कामना ठीक उसी तरह करने लगता है जिस तरह पुष्प सारे जगत् को सुवासित करते हैं। परम कल्याण की यह वृत्ति समाज-व्यवस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
सन्दर्भ १.शमः कषायेन्द्रियजयः।-योगशास्त्र स्व. विवरण, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १९२६ २. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्टो।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥- प्रवचनसार, १७ ३.संसारदुःखान्नित्यभीरता संवेगः। -सर्वार्थसिद्धि ,६/२४ ४. संवेगो मोक्षाभिलाषा। -दशवैकालिकनियुक्ति, हरिभद्रवृत्ति, ५७, जैनपुस्तकोद्धारफंड, बम्बई, ५. त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो ।-पंचाध्यायी,२/४४३, गणेशवर्णी जैन ग्रंथमाला, वाराणसी ६. निर्वेदो निर्विण्णता शरीर-भोग-संसारविषयवैमुख्यमुद्वेगः ॥ - तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ७/७, देवचंद
लालचंद जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई, वि. १९८६ ।। ७. तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठण जो दु दुहिमणो। ___ पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसो होदि अणुकंपा ॥ -पंचास्तिकाय, १३५ ८. जीवादयोऽर्थाः यथास्वं भावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम् ।-तत्त्वार्थवार्त्तिक १/२/३०, भारतीय
___ ज्ञानपीठ, काशी, १९५३ . . ९. निस्संकिय-निक्कंखिय-निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य।
उववूह-थिरीकरणे वच्छलपभावणे अट्ठ ॥-उत्तराध्ययनसूत्र २८/३१ १०. उवगृहण....- मूलाराधना, ४५ पृ. १४९
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