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________________ स्वास्थ्य और सम्यग्दर्शन __ चंचल मल चोरड़िया सम्यक् प्रकार से जीवन जीने में स्वास्थ्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किन्तु मनुष्य का दृष्टिकोण स्वास्थ्य के प्रति भी विकृत है। आवश्यकता है वह अपना दृष्टिकोण सम्यक् बनाए। प्रस्तुत लेख स्वास्थ्य के सम्बन्ध में सम्यक् दृष्टि पर विचार करता है।-सम्पादक स्वस्थ कौन? 'स्वस्थ' का मतलब है स्व में स्थित हो जाना अर्थात् अपने निज स्वरूप में आ जाना या विभाव अवस्था से स्वभाव में आ जाना। जैसे अग्नि के सम्पर्क से पानी . गरम हो जाता है, उबलने लगता है। परन्तु जैसे ही अग्नि से उसको अलग करते हैं धीरे-धीरे वह ठण्डा हो जाता है। शीतलता पानी का स्वभाव है गरमी नहीं। उसी प्रकार शरीर में जैसे हड्डियों का स्वभाव कठोरता है, परन्तु किसी कारणवश कोई हड्डी नरम हो जावे तो रोग का कारण बन जाती है। मांसपेशियों का स्वभाव लचीलापन है, परन्तु उसमें कहीं कठोरता आ जाती है, गांठ बन जाती है तो शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। हृदय एवं रक्त को शरीर में अपेक्षित गरम रहना चाहिये परन्तु ठण्डा हो जावे, मस्तिष्क तनावमुक्त शान्त रहना चाहिये, परन्तु वह उत्तेजित हो जावे, शरीर का तापक्रम ९८.४ डि.ग्री. फारेहनाईट रहना चाहिये, परन्तु वह बढ़ जावे अथवा कम हो जावे, शरीर में सभी अंगों एवं उपांगो का आकार निश्चित होता है, परन्तु वैसा न हो, विकास जिस अनुपात में होना चाहिये उस अनुपात में न हो, जैसे शरीर बेढंगा हो, शरीर में विकलांगता हो, आंखों की दृष्टि कमजोर हो, कान से कम सुनायी देता हो, मुंह से बराबर बोल न सके, आदि बातें शरीर की विभाव दशा को दर्शाते हैं। अतः रोग के प्रतीक हैं। शरीर का गुण है जो अंग और उपांग शरीर में जिस स्थान पर स्थित हैं उनको वहीं स्थित रखना। हलन चलन के बावजूद आगे-पीछे न होने देना। शरीर में विकार उत्पन्न हो जाने पर उसको दूर कर पुनः अच्छा करना। यदि कोई हड्डी टूट जावे तो उसे पुनः जोड़ना । चोट लग जाने से घाव हो गया हो तो उसको भरना तथा पुनः त्वचा का आवरण लगाना तथा रक्त बढ़ने अथवा रक्त-दान आदि से शरीर में रक्त की कमी हो गई हो तो उसकी पुनः पूर्ति करना। ये सब कार्य, गुण यानी शरीर के स्वभाव हैं। परन्तु यदि किसी कारणवश शरीर इन कार्यों को बराबर न करे तो यह उसकी विभावदशा है अर्थात् शारीरिक रोगों का प्रतीक है। शरीर विभिन्न तन्त्रों का समूह है। जैसे ज्ञानतन्त्र, नाडीतन्त्र, श्वसन, पाचन, विसर्जन, मज्जा, अस्थि, लासिका शुद्धिकरण, प्रजनन-तन्त्र आदि। सभी आपसी सहयोग से अपना-अपना कार्य स्वयं ही करते हैं, क्योंकि ये चेतनाशील प्राणी के लक्षण अथवा स्वभाव हैं। परन्तु यदि किसी कारणवश कोई भी तन्त्र शिथिल हो जाता है एवम् उसके कार्य को संचालित अथवा नियन्त्रित करने के लिये बाह्य सहयोग लेना पड़े तो यह शरीर की विभावदशा है अर्थात् शारीरिक रोग का सूचक है। * अहिंसक-चिकित्सा विशेषज्ञ, विद्युत् अभियन्ता एवं समाजसेवी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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