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________________ सम्यग्दर्शन और समाज-व्यवस्था ___- डॉ. रज्जनकुमार सम्यग्दर्शन यद्यपि आध्यात्मिक उत्थान से सम्बद्ध है तथापि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रभाव व्यक्ति के माध्यम से परिवार एवं समाज पर भी पड़ता है। इसलिए सम्यक्त्व के पांच लक्षणों एवं आठ आचारों के परिप्रेक्ष्य में समाज-व्यवस्था पर प्रस्तुत लेख में विचार किया जा रहा है।-सम्पादक सम्यक्त्व के लक्षण और समाज व्यवस्था जैन परम्परा में सम्यक्त्व के पाँच लक्षण माने गए हैं - १. सम, २. संवेग, ३. निर्वेद, ४. अनुकम्पा और ५ आस्तिक्य। १. सम - सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण 'सम' है, जिसका ‘शम', 'सम' और 'श्रम' इन तीन अर्थों में प्रयोग मिलता है। कभी यह चित्तवृत्ति की समभाव स्थिति को व्यक्त करता है तो कभी शमन अथवा शांत करने के रूप में प्रयुक्त होता है । कहीं कहीं यह समत्वानुभूति अर्थ का भी द्योतक माना जाता है। योगशास्त्र में 'शम' शब्द कषायों को शान्त करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सुख-दुःख लाभ-हानि आदि परिस्थितियों में समान भाव रखने वाला व्यक्ति समत्वभाव से युक्त माना जाता है। ऐसा व्यक्ति 'सम' गुण को धारण करने वाला होता है। यह अनुकूल-प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में अपने विवेक को नहीं खोता है। जैन परम्परा में ऐसे व्यक्ति को मोह एवं क्षोभ के परिणामों से रहित माना गया है। .. सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह की परिस्थितियों में समत्व भाव को बनाए रखना समाज-व्यवस्था के लिए प्रेरणा का स्रोत हो सकता है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति ऐसे आचरण की दूसरों से अपेक्षा रखता है। २. संवेग - संवेग एक प्रकार की अनुभूति है। आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि संसार के दुःख से जो सतत भय होता है वह संवेग है जबकि दशवैकालिक नियुक्ति में मोक्ष की अभिलाषा को संवेग कहा गया है। संसार की दुःखमयता का नाश मोक्षावस्था में ही संभव है। जो साधक मोक्षाभिलाषी होगा वह संसार के दुःख से भयभीत अवश्य होगा। क्योंकि मोक्ष सर्व दुःखों से मुक्त अवस्था है जबकि संसार दुःख-भोग का सागर । मोक्षाभिलाषी व्यक्ति आत्मा के आनन्दमय स्वरूप को प्राप्त करमा चाहता है। इस आनन्दमय अवस्था की प्राप्ति के लिए उसे ज्ञानरूपी रथ पर सवार होकर अज्ञानरूपी शत्रु को परास्त करना होता है। जबकि अज्ञान मिथ्यात्व या अवथार्थ दृष्टि है। ___यथार्थ दृष्टि समाज-व्यवस्था के लिए अनुपम साधन है, क्योंकि इस ज्ञान से युक्त व्यक्ति मिथ्यात्व के दोष और परिणामों से समाज को मुक्त रखना चाहता है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसमें यह करने की इच्छा भी है और दृष्टि भी है। । ३. निर्वेद : सभी प्रकार की अभिलाषाओं से मुक्त हो जाना अथवा त्याग कर देना निर्वेद है। सभी तरह की अभिलाषाओं से मुक्त होना क्या किसी व्यक्ति के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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