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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार ३०९ लिए संभव है ? क्या आकांक्षारहित होकर कोई व्यक्ति जीवन चला सकता है ? क्योंकि जिजीविषा ही व्यक्ति में जीवन के प्रति ललक उत्पन्न करती है और यही ललक अभिलाषा का दूसरा रूप है। अब हमारे समक्ष यह समस्या है कि अभिलाषाओं से मुक्त भी होना है और अभिलाषा को जगा कर भी रखना है । ये दो विपरीत कार्य एक समय में ही कैसे संभव हो सकते हैं । किन्तु यह संभव है । सांसारिक प्रवृत्तियों को बढ़ाने वाली आकांक्षाओं से मुक्त रहना और इनसे किस प्रकार मुक्त हुआ जाए इस प्रेरणा की अभिलाषा करना ये दोनों ही घटनाएं उसी व्यक्ति में उत्पन्न हो सकती हैं जो अपने शरीर, इन्द्रियभोग, संसार- विषय-वासनाओं की क्षणिकता को समझता है और इनसे अनासक्त रहता है । तत्त्वार्थभाष्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संसार, शरीर, इन्द्रिय विषय-भोगों से होने वाली विरक्ति ही निर्वेद है 1 ६ सम्यक्त्व का यह लक्षण समाज-व्यवस्था के लिए बहुत अधिक उपयोगी माना जा सकता है । यह व्यक्ति में अनासक्ति का भाव जागृत करता है । अनासक्ति सभी तरह संघर्षों को मिटाने में सक्षम है। संघर्षहीनता वाली स्थिति समाज-व्यवस्था के लिए कितनी अधिक उपयोगी हो सकती है इसे विवेक - संपन्न प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है I 1 ४. अनुकम्पा - अनुकंपा मानव हृदय में उत्पन्न सबसे उज्ज्वल पक्ष है । इसी गुण के कारण मनुष्य 'मनुष्य' कहलाता है। अनुकंपा या दया के वशीभूत होकर एक व्यक्ति दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानने लगना है और उसी के अनुरूप अपने व्यवहार का प्रदर्शन करता है। अगर कोई दुःखी होता है तो उसके दुःख से स्वयं को पीड़ित समझता है और उस पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न करता है, उसका यही प्रयत्न अनुकंपा के नाम से जाना जाता है । पंचास्तिकाय में अनुकम्पा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- तृषित, बुभुक्षित एवं दुःखी प्राणी को देखकर उसके दुःख से स्वयं दुःखी होना व मन में उसके उद्धार की चिन्ता करना ही अनुकंपा है। ७ अनुकम्पा समाज व्यवस्था की नींव है। समाज की स्थापना ही अनुकंपा रूपी मानवीय गुणों पर आधारित है। अनुकंपा की भावना ही व्यक्ति में परस्पर सहयोग का वातावरण उत्पन्न करती है जो कि समाज-व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। अनुकंपा और परस्पर सहयोग की भावना समाज-व्यवस्था के लिए कितना अधिक महत्त्व रखती है इसे आचार्य उमास्वाति ने “ परस्परोपग्रहो जीवानाम्" के रूप में व्यक्त किया हैं। Jain Education International • आस्तिक्य- 'आस्तिक्य' शब्द सत्ता का वाचक माना जाता है। क्योंकि इसके मूल में 'अस्ति' शब्द है जो सत्ता का परिचायक है । सम्यक्त्व का यह लक्षण सत्ता का वाचक होने के साथ-साथ व्यक्ति की श्रद्धा का भी परिचायक है । व्यक्ति किसी धर्म-परंपरा से अवश्य जुड़ा रहता है । प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श उपास्य होता है जिसके प्रति वह आस्था रखता है । उसकी यह आस्था उस आदर्श - उपास्य द्वारा दिखाए गए मार्ग, वचन आदि के प्रति भी हो सकती है। जैन- परम्परा में तीर्थंकर, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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