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________________ सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार ३०७ प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त होते हैं । १४ जीव जब सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता है तब तक दुःखी रहता है . १५ 1 इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्यक् दर्शन एक आध्यात्मिक मूल्य है, एक आध्यात्मिक जीवन दृष्टि है । जीवन दृष्टि, जिसके बिना व्यक्ति के जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। इस आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के कारण ही हमारी भारतीय संस्कृति विश्वजनीन एवं सर्वसमावेशी है। 1 आज विश्व में चारों ओर यह चर्चा है कि मूल्यों का ह्रास हो रहा है जिसके कारण सर्वत्र हिंसा, घृणा, अविश्वास व स्वार्थ का दावानल धधक रहा है । फलतः हमारे धर्मगुरु, राजनेता, समाजसेवी आदि लोग प्रत्येक मानव को सुसंस्कृत होने के लिए संयम, सेवा, प्रेम, करुणा, सहिष्णुता, त्याग, समता, अपरिग्रह आदि मानवीय मूल्यों को अपनाने पर बल दे रहे हैं । किन्तु इन मानवीय मूल्यों को व्यक्ति तभी अपनाने की | ओर उन्मुख होगा जब उसकी दृष्टि सम्यक् होगी । क्योंकि जैसी दृष्टि होगी उसी के अनुरूप उसका जीवन-निर्माण होगा । सन्दर्भ १. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड-५, पृ. २४२५ २.वही - पृ. २४२५ ३. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । - तत्त्वार्थसूत्र, १/२ ४. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई ॥ - उत्तराध्ययन, २८.३५ ५. तत्त्वार्थसूत्र,१/२ ६.जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । पुण्य एवं पाप सहित नौ तत्त्व मान्य हैं । ७. तत्त्वार्थाधिगम, १/३ ८. डॉ.सागरमल जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२,पृ.,४९ ९. वही, पृ. ४९ १०. अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्, साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ गीता, ९/३० क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ वही, ९/३१ ११. डॉ. गिरिजा व्यास, गीता और बाइबिल, पृ. १३ १२. पं. सुखलाल संघवी, जैनधर्म का प्राण, पृ. २४ १३. एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयत्तयसोवाणं पढमं मोक्खस्स || दर्शनपाहुड-२१ १४. कामदुहिं कप्पतरुं चिंतारयणरसायणं य समं । भंजइ सोक्खं जहच्छियं जाण तह सम्मं ॥ रयणसार- ५४ १५. सम्मद्दंसणसुद्धं जाव लभदे हि ताव सुही । सम्मद्दंसणसुद्धं जाव ण लभते हि ताव दुही । वही - ५८ Jain Education International - जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं - ३४१३०६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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